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मजबूरी में लांघी घर की दहलीज

Harish Bhatt
Harish Bhatt
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क्या कभी किसी ने सोचा है कि महिलाओं को आरक्षण की आवश्यकता क्यों पड़ी? आज हर क्षेत्र में महिलाओं की दखलंदाजी क्यों बढ़ रही है? शारीरिक व मानसिक रूप से पुरुष से कमजोर नारी आज सशक्त होकर घर की दहलीज क्यों लांघ रही है? इन सवालों का सिर्फ और सिर्फ एक ही जवाब हो सकता है कि जब से पुरुषों ने अपनी जिम्मेदारियों से मुंह मोडऩा शुरू किया, तो उन जिम्मेदारियों को पूरा करने की जिम्मेदारी महिलाओं ने स्वयं अपने कंधों पर ले ली. अब जब जिम्मेदारियां पूरी करने का सवाल हो, तो घर से बाहर निकलना ही होगा. क्योंकि सुबह घर से निकलते हुए रामू की मां ने कहा कि रामू के पापा, शाम को आते समय दूध लेकर आना, क्योंकि आज सुबह दूध वाला दूध देने नहीं आया था. उस समय तो रामू के पापा ने कहा ठीक है, लेता आऊंगा. लेकिन शाम ढलते-ढलते जब लड़खड़ाते हुए रामू के पापा खाली हाथ घर में घुसे तो अगले दिन से रामू की मां को दूध लेने के लिए स्वयं ही जाना पड़ा. अब अगर रामू के पापा दूध लेकर आ जाते तो रामू की मां को घर से निकलने की क्या जरूरत पड़ती. अब खेतों में फसल लहला रही है, उसकी कटाई भी करनी है, लेकिन रामदीन के पापा को गांव की चौपाल पर नेतागिरी करने या ताश खेलने से फुर्सत नहीं है तो खेतों की देखभाल कौन करेगा. फिर बच्चों को भी खाना देना है ऐसे में बच्चों को खाना देकर या फिर छोटे बच्चे को पीठ पर लाद कर खेत पर जाने के सिवाय रामदीन की मां और कर भी क्या सकती है. फिर कहा भी तो जाता है कि मजबूरी ही सब कुछ करवाती है. ऐसे में अगर अपना व अपने बच्चों का पेट भरना हो तो घर से बाहर तो निकलना ही होगा. अगर पुरुष अपनी जिम्मेदारियों को ठीक से निभा लेते तो क्या जरूरत थी, एक महिला को खेतों व सड़कों पर जाने की. वैसे भी तो घर में सुबह से रात तक उसके पास इतने काम होते है कि वह भी ठीक से पूरे नहीं हो पाते. उस पर घर खर्च के लिए रुपए-पैसे का इंतजाम करने की दोहरी मार. बस ऐसे ही धीरे-धीरे यह मजबूरी आज हमारे देश में इतने विकराल रूप में आ गई है कि आज महिलाओं ने अपना हक मजबूती के साथ मांगना शुरू कर दिया तो पुरुष प्रधान समाज में कुलबुलाहट मच गई. आप खुद देखिए कि हर लड़की के साथ-साथ उसके माता-पिता की तमन्ना होती है कि उस लड़की का किसी सुयोग्य लड़के के साथ घर बस जाए और वह घर के छोटे से बड़े हर काम को पूरी जिम्मेदारी के साथ करते हुए हंसी-खुशी अपनी जिंदगी बिता दें, पर विडंबना यह है कि उस लड़के ने अपनी जिम्मेदारियों से मुंह मोड़ते हुए उसको महिला हेल्प लाइन या कोर्ट तक जाने को मजबूर कर दिया. अब ऐसे में वह लड़की अपने हक के लिए घर से बाहर पैर न रखे तो क्या फांसी लगाकर मर जाए. बात करते है कि देश व राज्य की सत्ता संभालने की और अपने छोटे-छोटे घर संभाले नहीं जाते. पुरुष प्रधान राष्ट्र में अगर पुरुषों ने अपनी जिम्मेदारियों को ठीक से निभाया होता तो आज न तो मंहगाई बढ़ती और न ही घर की महिलाओं को आरक्षण की जरूरत पड़ती. सरकारों का तो कहना ही क्या उनकी आदतों में शामिल है फूट डालो-राज करो, इसलिए आधी आबादी(पुरुषों) को अपनी जिम्मेदारी का अहसास कराने के बजाय आज तक आधी आबादी (महिलाओं) का इस्तेमाल अपनी सत्ता को बचाए रखने के लिए किया है. जिसके बहुत उदाहरण हमारे सामने है, आज भी ग्राम पंचायत स्तर से लेकर राज्य व देश स्तर पर जहां पर पुरुषों ने अपने हितों के लिए अपनी पत्नी को चुनाव में जितवा कर उसको मुहर बना दिया है, कभी महिला ने अपने मर्जी से कोई फैसला लिया तो उस पर चरित्रहीन होने के आरोप लगने तय समझो. आखिर बात यह है कि अगर पुरुष अपनी जिम्मेदारियों के प्रति ईमानदार हो जाए तो किसी भी महिला को किसी भी तरह के आरक्षण की आवश्यकता नहीं होगी.

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