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कौन कहता है कि उत्तराखंड में विकास हुआ है, जबकि सच यह है यह छोटी सी मासूम लडकी अपनी जान जोखिम में डालकर गाय की खुराक का इंतजाम करने को मजबूर है. और इसके पिता अपने घर परि्वार के पालनपोषण लायक पैसा कमाने के लिए दूर शहर में गए है, जो कभी ही अवकाश मिलने पर एक दो दिन के लिए गांव अपने परिवार के पास आ पाते है. शहरों में वातानुकूलित कमरों में बैठकर कर पहाड के विकास के लिए करोडो रुपए की योजनाएं बनाना आसान है. मेरा गाँव रूद्रप्रयाग जिले में तिलवाडा से 20 किमी दूर है. जहां पर आज भी अगर किसी को दोपहर बाद बुखार आ जाए या चोट लग जाए तो अगले दिन सूरज निकलने तक उसका दर्द से तडपना तय है. मुख्य कारण यह है कि सडक बहुत अच्छी नहीं है और जो है भी पर वाहन नहीं. पहाड पर डॉक्टर जाना नहीं चाहते, अध्यापक रूकना नहीं चाहते, इन जरूरी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए पहाडवासी पहाड नहीं छोडेगे तो क्या करेंगे. क्योंकि जिंदा रहने के लिए दवाई खानी पडेगी और सभ्य होने के लिए शिक्षा. कोई भी इंसान खुशी से अपना घर नहीं छोडता, अपना अस्तित्व बरकरार रखने की मजबूरी ही उसे जगह बदलने पर मजबूर करती है. मालूम नहीं आखिर कब तक पहाडियों को यह दर्द सहना पडेगा. यह फोटो तो सिर्फ झलक भर है पहाड़ की जोखिम भरी जिंदगी की.
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