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यह कौन सी बात हुई?

Harish Bhatt
Harish Bhatt
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किसी भी बात पर सवाल उठाना या विरोध करना जितना आसान होता है, उतना ही कठिन होता है उस बात का समाधान निकालना. देश के मौजूदा हालात में जिन साहित्यकारों को अपना दम घुटता महसूस हो रहा है, वह जरा यह बताए कि उन्होंने देश के लिए कौन से साहित्य का निर्माण किया या अपने साहित्य से देश को क्या दिया. शब्दों की जादूगरी से वाह-वाही तो मिल सकती है, परन्तु देश के हालात नहीं सुधारे जा सकते. पुरस्कार लौटाने वालों के द्वारा रचित साहित्य इसी बात को साबित करता है. जिस देश के पाठकों ने उनको सराहा और पढ़ा उसी देश में आज उनका दम घुट रहा है. कहा जाता है कि साहित्य समाज का दर्पण होता है. अगर यह बात सही होती है, तो उन कलमधारियों को पुरस्कार ग्रहण ही नहीं करने चाहिए थे. इस देश का दंगों और राजनीति से पुराना नाता रहा है, भारत-पाक दंगों की बुनियाद पर खड़े देश में कैसे अमन की उम्मीद लगाई जा सकती है. वक्त के साथ-साथ जख्म जरूर भर जाएंगे, लेकिन अभी इतना वक्त भी नहीं हुआ है कि उन बातों को भुलाया जा सकें. इन दोनों मुल्कों में अभी भी जीवित हालात में अपनी मौत का इंतजार करते लोग होंगे, जिनकी आंखों के सामने दादा-दादी, नाना-नानी या अन्य परिजनों की निर्मम हत्या का दृश्य आज भी घूम जाया करता होगा. दंगों की आग को बुझाने की बजाय सुलगाने का काम इन दोनों देशों के नेताओं को बखूबी आता है. आजकल गौमांस से लगी चिंगारी को फिर भड़काने की कोशिश जारी है. सब जानते है कि इस चिंगारी से एक बार फिर दंगे भड़क सकते है, जिसमें न जाने कितने बेकसूर मारे जाएं, तब ऐसे में क्या जरूरत है इस बात को फैलाने की और क्या जरूरत है गौमांस की, जो हिंदुओं की पूजनीय है. खुद का सम्मान चाहते तो जरूरी है दूसरे का भी सम्मान किया जाए. जैसा बोया जाएगा वैसा ही काटा जाएगा. जहां बात-बात पर दंगा भड़क जाता हो, जहां आए दिन बम धमाकों में बेकसूर मारे जाते हो, वहां इस तरह की हरकतें समझ से बाहर है. साहित्य से ही हमको तत्कालीन परिस्थितियों का आभास होता है. साहित्यकार ही भविष्य के समाज का निर्धारण करते है. जिन साहित्यकारों का मौजूदा हालात में दम घुट रहा है, उन्होंने पुरस्कार वापस लौटा दिए, कुछ ने तो धनराशि के चैक तक वापस करने की घोषणा तक कर दी है. यहां पर एक सवाल जरूर मन में उठ रहा है कि ये कलमधारी उस मान-सम्मान को कैसे लौटाएंगे, जो इनको पुरस्कार मिलने के बाद समाज व पाठकों से मिला था. यह बात सोचनीय है कि क्या वास्तव में साहित्यकारों का दम घुट रहा है या गुमनाम गलियों से निकल सुर्खियों में आने कोशिश.

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