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जब इलेक्शन हाई लेवल का हो तो कैंडिडेट को कौन पूछता है. व्यक्ति नहीं विचार चुनिए. विश्व की सबसे बड़ी लोकतांत्रिक व्यवस्था में एक अकेला थक जाएगा, इसलिए संगठित रूप से चुनाव लड़ने वाले एक विचारधारा के व्यक्तियों का चुनाव जरूरी है. कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा भानुमति ने कुनबा जोड़ा वाली विचारधारा का जीतना ठीक वैसे ही होगा जैसे आ बैल मुझे मार. अभी वक्त है, चिड़िया खेत चुग गई तो पछताने के सिवाय कुछ नहीं मिलने वाला. गठबंधन में लालच की गांठ खुल जाए तो ना घर का छोड़ती ना घाट का. राष्ट्रीय स्तर पर क्षेत्रीय दलों की उपस्थिति सुखद तो हो सकती है लेकिन उसके रिजल्ट खतरनाक ही साबित होते हैं. दिखने वाली हर खूबसूरत चीज जरूरी नहीं कि मीठी ही हो. सोचिए समझिए फैसले का वक्त है कहीं जोर का झटका धीरे से ना लग जाए.
अपनी पसंद की सरकार बनाने का वक्त आ गया है. जो काम बिना शोरगुल के हो सकता है, उसके लिए 5 साल तक चीखने चिल्लाने का कोई फायदा नहीं. लोकतांत्रिक प्रणाली में मतदान अवश्य करें. कभी-कभी हम मायूसी में वोट डालने नहीं जाते तो हम ही गलत हैं क्योंकि सरकार बन जाती है और हम कुछ नहीं कर पाते. काश हमने वोट दिया होता तो सरकार का रुख बदल सकते थे. मतपत्र खराब हुए तो ईवीएम आ गई. अब ईवीएम में भी खोट निकल आया. यह सिर्फ बहानेबाजी के अलावा कुछ नहीं है. हकीकत यह है कि वोटर्स पोलिंग बूथ पर गए ही नहीं. नतीजा यह निकला कि कैंडिडेट ईवीएम पर बरसे तो वोटिंग ना करने वाले सरकार पर. अजब तमाशा है जब फैसले के वक्त मुंह फेर लिया तो बाद में चिल्लाने का क्या फायदा. जिस राजनीतिक दल से जनता सकारात्मक रूप से प्रभावित होती है उसके पक्ष में वोटिंग हो जाती है. 5 साल में 1 दिन सिर्फ 1 या 2 घंटे का वक्त निकालकर वोट कर दिया जाए तो कोई भूकंप नहीं आ जाएगा जिंदगी में. हां अगर वोट नहीं दिया तो हो सकता है कि आपके मनमाफिक सरकार ना बने और आप 5 साल तक सरकार को कोसते रहे कि बेकार है बेकार है, जबकि गलती खुद की थी वोट ना देकर. इसीलिए फैसले की घड़ी आ गई है और वोट जरूर करें, अच्छा या बुरा आने वाले वक्त की बात है लेकिन वोट देना हमारा अधिकार भी है और हमारा कर्तव्य भी.
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