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आखिर कौन है वह. जो बच्चों में इंसानियत के प्रति जहर उडेल रहा है. तंगहाली, शोषण, मौकापरस्ती, लूटने-खसोटने की नीयत. आज आतंक का पर्याय बना तालिबान संगठन हो या आईएसआईएस हो या फिर नक्सली. इनमें शामिल युवा भी तो कभी बच्चे ही होगे. उन बच्चों के दिलो-दिमाग में हैवानियत भरे विचारों का संचार करने वाले लोग कौन है. समाज के बीच में रहकर समाज विरोधी गतिविधियों को बढ़ावा देने वाले चिंतक, विचारक भी दोषी हो सकते है. कोई जन्म से आतंकी नहीं होता. कोई भी अचानक हथियार नहीं उठाता. हथियार उठाने का मतलब है खुद को मौत के आगोश में सौंपना. आज की आतंकी गतिविधियां अचानक नहीं हुई है, यह सदियों से सताए दबे-कुचले लोगों का प्रतिशोध है. ताज्जुब तो इस बात है कि दुनिया से आतंकवाद को खत्म करने के लिए हर कोई वचनबद्घ है. लेकिन साथ मिलकर लडऩा भी गंवारा नहीं है. एक बहुत छोटी सी बात है कि अगर किसी बच्चे को हथियार चलाना सिखाया जा सकता है, तो उसको प्यार, मुहब्बत से जीवन निर्वाह करने के तौर-तरीके भी सिखाए जा सकते है. आखिर हम पहले कदम पर ही ध्यान क्यों नहीं देते. हम फुंसी के नासूर बनने का इंतजार क्यों करते हैं. रोटी, कपड़ा और मकान की बाट जोहते दुनिया भर के लोगों के प्रति संबंधित सरकारें क्यों भेदभावपूर्ण व्यवहार करती है. सरकारों की नजरअंदाजी और बेरूखी ही भोले-भाले इंसानों को हथियार उठाने को बाध्य करती है. बात पाक में स्कूली बच्चों की हो या भारत में नक्सली हमलों की या फिर दुनिया के किसी भी देश की, सब जगह वजह एक ही है- जीवन की मूलभूल आवश्यकताओं का अभाव. यदि इस अभाव को दूर करने की दिशा में वक्त रहते ध्यान दिया गया होता तो शायद यह दिन नहीं देखना पड़ता.
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