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अपने अखंड स्वरूप की ओर बढता भारत…

हस्तक्षेप..
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हम मे से कई लोग ऐसे हैं जो 15 अगस्त को स्वतंत्रता दिवस पर दासता से मुक्ति का उत्सव तो मनाते हैं, लेकिन मन मे कहीं एक टीस है जो याद दिलाती है कि उस दिन हमारा देश खंडित हुआ था। कम से कम स्वतंत्रता सेनानियों ने खंडित भारत की कल्पना भी नही की होगी, स्वतंत्रता के बाद विदेशियों के प्रशासनिक अधिकारियों को ही प्रशासन संभालने देना मानसिक दासता का ही एक प्रमाण था। उस समय के तथाकथित स्वयंभू स्वतंत्रता सेनानियों ने मात्र स्वयं को ही स्वतंत्रता सेनानी कहलवाने का षडयंत्र किया और प्रशासन संभालने के लिप्सा में खंडित भारत स्वीकार किया।
1947, 65, 71 के पाकिस्तानी आक्रमण ने अखंड भारत के सपने को कमजोर किया, क्योंकि पाकिस्तान में कोई भी सत्ता ऐसी नही आ सकी जो भारत के साथ सौहार्द पूर्ण तरीके से बात कर सके और अपनी विश्वसनीयता बना सके, और भारत में ऐसी कोई सत्ता नही आयी जो पाकिस्तान को ये समझा सके कि वह मात्र कुछ नेताओं की जिद, अदूरदर्शिता और सांप्रदायिकता का नतीजा है। टुकड़े जर्मनी के भी हुए लेकिन वो फिर एक हो गये। बर्लिन की दीवार का अस्तित्व बहुत अधिक समय तक नही रह सका था। 80 के दशक के बाद आतंकी घटनाओं ने भी अखंड भारत की परिकल्पना में रोड़े ही अटकाये। काश्मीर, खालिस्तान, उत्तर पूर्व के आतंकियों के आई एस आई से संबधों ने सामान्य भारतीय के मन में कभी इस विचार को पनपने भी नही दिया कि पाकिस्तान, भारत, बांग्ला देश, म्यानमार मिलकर कभी अखंड भारत हो सकेंगे। एक निराशापूर्ण वातावरण मे सामान्य भारतीय के लिये ऐसा सोचना भी दुरूह था। इन सब प्रकार की परिस्थितियों के बीच में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एकमात्र ऐसा संगठन था जिसने अखंड भारत के सपने को कभी नही भुलाया, और हर संभव तरीके से लोगों के बीच में इस सपने को जीवित रखने का प्रयास किया कि जब तक भारत अपने पूर्व अखंड स्वरूप को प्राप्त नही कर लेता, और जब तक भारत विश्व गुरु नही बन जाता तब तक विश्राम नही लेना है। इस सपने को ले कर जीते मरते असंख्य कार्यकर्त्ता अपने सपने और लक्ष्य को पूर्ण करने के लिये दिन रात समाज के बीच में कार्य करते रहे।

2014 का वर्ष भारतीय राजनैतिक परिवर्तन का एक ऐतिहासिक मोड़ था, जब एक ऐसे राजनैतिक दल ने सत्ता संभाली जिसके कार्यकर्त्ता और नेता संघ प्रशिक्षण प्राप्त थे, और उन्होने भी भारत के अखंड स्वरूप और विश्व गुरु बनने के सपने को जिया है। बीते 70 वर्षों में भारत वह प्रगति नही कर सका जिसकी क्षमता इस देश में थी, जिसके सपने इस देश के लोगों ने देखे थे, कारण राजनैतिक नेतृत्व ही था, जिसने सत्ता में बने रहने के समय का उपयोग मात्र इसलिये किया किस प्रकार अगले चुनाव में हम फिर से सत्ता हासिल कर सकें, सत्ता उनके लिये शक्ति में बने रहने का साधन थी, उन्होने उसको लोक कल्याण और देश की प्रगति के लिये दिये गये दायित्व की तरह कभी नही देखा। सत्ता में बना रहना ही नही, वरन अपराधियों को संरक्षण देना, उनको देश से भागने देने में सहायता करना, देश के भीतर अपराधियों को सत्ता में भागीदार बनाने जैसे पाप भी सत्तालोलुप समूहों ने किये।

2014 भारतीय इतिहास का वह वर्ष है, जब संघ के प्रशिक्षण से निकले लोगों ने सत्ता संभाली, पिछली और वर्तमान सत्ताओं का अंतर स्पष्ट दिखाई देता है, लेकिन जब अधिकांश लोग सत्ता के कार्यों का मूल्यांकन उसके द्वारा की गयी लोक कल्याण की योजनाओं, प्रशासनिक तरीकों और व्यवस्था में किये गये परिवर्तन, नीतियों मे किये गये बदलाव से करते हैं, मैं उसका एक दूसरा आयाम देखता हूं, जो भारत के अखंड स्वरूप को फिर से प्राप्त किये जाने के प्रयास पर केंद्रित होता है। भारतके प्रधानमंत्री जब नागालैंड जाते हैं और वहां के जनजातीय समुदाय के कार्यक्रम में सीमा पार स्थित जनजातीय समुदाय की भी बात करते हैं, तो वह एक प्रयास होता है जो म्यानमार मे रहने वाले समुदाय को यह बताता है कि सांस्कृतिक रूप से वह उसी भारत का हिस्सा हैं जिसे आज राजनैतिक सीमाओं ने भले अलग कर दिया हो लेकिन संस्कृति के रूप मे आज भी वह जनमानस के हृदय मे बसता है। जब प्रधानमंत्री सार्क देशों के लिये एक सेटेलाइट की बात करते हैं, तो वह एक संदेश होता है कि हम सब एक ही हैं। सभी सार्क देशों के लिये एक उपग्रह मात्र उपग्रह नही होता, वह यह भी बताता है कि हम सभी देश एक साथ जुड़ कर अपने अपने हितों को साध सकते हैं।

जब प्रधानमंत्री ढाकेश्वरी मंदिर, पशुपतिनाथ मंदिर जाते हैं वो वह बताते है कि मैं राजनैतिक रूप से भारत का हूं, लेकिन मेरी वही संस्कृति है जिसकी परंपरा, जिसका पालन और जिसके निशान आपके देश मे आज भी है। सांस्कृतिक रूप से वह उसी विराट भारत का हिस्सा हैं जो मात्र राजनैतिक रूप से अलग है, और यह सिर्फ मंदिरों या सांस्कृतिक कार्यक्रमों तक ही सीमित नही है, जब मोदी नवाज शरीफ की माता जी के पैर छूते हैं तो यह उस परंपरा की याद दिलाता है जो पाकिस्तान भूल गया है, आखिरकार कुछ सौ वर्षों पहले तक पाकिस्तान में भी यही परंपरायें चलती थी, राजनैतिक रूप से अलग होने के बाद भी कोई अपनी संस्कृति को आसानी से नही भूल पाता और उस पर जब उसको याद दिलाया जाये तो मन मे कहीं ना कहीं टीस जरूर जागती है। तारिक फतह जैसे व्यक्ति खुलेआम कहते हैं कि वह भारतीय संस्कृति के वंशज हैं, पाकिस्तान में आज भी कोई भोली बालिका होती है तो उसको अल्लाह मियां की गाय कहते हैं। कहीं ना कहीं, किसी प्रकार से गाय आज भी उनके अन्तर्मन में जीवित है। पाकिस्तान के पंजाब की भाषा और परंपराओं में आज भी हिंदू परंपराओं की झलक है। बलोचिस्तान के लोग स्वयं को अरब के वंशज नही मानते, वह आज भी कहते हैं कि वह अरब की संस्कृति के नही हैं, वह वैदिक संस्कृति के वंशज हैं। ऐसे में आश्चर्य नही कि अगले कुछ वर्षों में सार्क देशों के बीच मे मुक्त व्यापार हो, सभी सार्क देश यूरोपीयन देशों की तरह एक ही मुद्रा में व्यापार करें, और सभी देशों के बीच मे मुक्त आवागमन की सुविधा हो, इस प्रकार की रचना को जब मैं सोचता हूं तो मुझे प्राचीन भारत की याद आती है, जहां अलग अलग राज्य अलग अलग सम्राटों द्वारा शासित होते थे, लेकिन सांस्कृतिक रूप से वह सब भारत के अंदर ही थे।

प्रशासनिक तौर पर बंटे हुए सार्क देश यदि सांस्कृतिक रूप से अपनी धरोहर को फिर से अपनाते हैं तो अखंड भारत का एक मोटा मोटा चित्र मेरी आंखों मे आने लगता है। आवश्यकता सार्क देशों के जनमानस को यह बताने की है कि वह आज भी सांस्कृतिक रूप से भारत का ही हिस्सा हैं, राजनैतिक रूप से सीमाओं ने उनको विभाजित किया है लेकिन उपासना पद्धति बदल जाने के बाद भी यदि वह वसुधैव कुटुंबकम, सर्वे भवंतु सुखिनः, एकं सत विप्राः बहुधा वदंति को जीवन मे उतारते हैं तो वह उसी विराट संस्कृति का भाग हैं जिसको भारतीय या हिंदू संस्कृति कहा जाता है, और ऐसा अब होने लगा है, पाकिस्तान जैसे देश मे योग धीरे धीरे अपने पैर पसार रहा है, हसन निसार, तारिक फतह जैसे व्यक्तित्व प्रयास करते हैं कि पाकिस्तानी जनमानस अपने जड़ों से जुड़े। वो जड़ें, जो बताती हैं कि उनके पूर्वज अरब या तुर्कमेनिस्तान के नही, बल्कि भारतीय हिंदू थे।

इस देश के लाखों स्वयंसेवकों का सपना उस अखंड भारत स्वरूप को फिर से देखना है जिसके लिये अनगिनत लोगों ने अपना जीवन खपा दिया है, और मुझे लगता है भारत धीमी गति से अब उस राह पर आगे बढ रहा है। भारतीय नेतृत्व अब सक्षम भी है और समझ भी रखता है, और उसको यह भी ज्ञात है कि भारतीय संस्कृति मात्र भारत के लिये नही, विश्व के लिये जरूरी है। विश्व को मात्र भारत ही दिशा दे सकता है, बिना भारतीय ज्ञान के विश्व दिशाहीन है, जीने की पद्धति की जो शिक्षा भारतीय मूल्यों मे है, वह विश्व के किसी ओर संस्कृति मे नही है, और विश्व कल्याण के लिये यह आवश्यक है कि हिंदू जीवन पद्धति और मूल्य विश्व मे हमेशा चिरंजीवी रहें।

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