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मेरी संक्रांति की खिचडी..

हस्तक्षेप..
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आज मकर संक्रांति है, सूर्य भगवान उत्तरायण मे जाना आरंभ करेंगे. वैसे तो खिचडी कई दिन से पक रही है, सब्जी मे बिना प्याज के मजा नही आता, और मुझे सब्जी खाने मे मजा आये, इसमे शरद पवार को मजा नही आता, तो आज भी खिचडी बनी है, ये अच्छा है कि इसमे प्याज नही डलते वरना संक्रांति पर्व की खिचडीभोज भी शासक समूह को धिक्कारने मे गुजरता. एक कौर खाता, चार गाली बकता, जीभ कटती तो आठ बकता. नेता ने तो सुनना बंद कर दिया, वो गुहार नही सुनता तो गाली क्या सुनेगा? वो तो आजकल इठलाती हुई महिला सी दिखती पत्रकार के, या फिर एक दैत्य जैसा, ब्रह्म भोज की डॉक्यूमेंट्री बनाने वाले पत्रकार के फोन सुनता है, खिचडी खाई तो लगा कि इस पर अभी तक खाद्य मंत्री की नजर क्यों नही पडी? ये कैसे सुलभता से प्राप्त हो रही है, आखिर उसकी संसद की थाली १३ से १८ रुपये की हो गयी तो उसका पैशाचिक दृष्टि प्रभाव मेरी थाली पर क्यों नही पडा? फिर सोचा खा लूं, कहीं नेता को पता चला तो खिचडी मे पडने वाले सभी पदार्थो के मूल्यो की जॉच करा देगा और फिर पानी, नमक, हल्दी, प्रेशर कूकर के दाम बढा देगा, और चूल्हे की अग्नि, प्रेशर कूकर के अंदर के भाप के दबाव पर एन्वायरमेंट टैक्स, थाली मे परोस कर खाने पर सर्विस टैक्स और हाथ से खाना मुँह तक पहुंचाने पर यातायात टैक्स लगा देगा.

खिचडी खतम हुई तो पेट ने गाली दी, कब तक खायेगा ये? एक ही चीज पचाता रहूंगा क्या? उसे भी समझाया, जो मिल रहा है वही पचा ले, नेता भी तो पिछले ६३ साल से गरीबो को पचा रहा है, उसने तो डकार तक नही मारी, फिर तुझे खिचडी पचाने मे क्या समस्या है? वो भी गरीब जनता की तरह भयभीत चुप्पी लगा कर बैठ गया. पिछले चुनाव मे नेता भीगी बिल्ली जैसा निरीह, दयनीय, शोषित, पीडित, जख्मी, पिटा छिता, गिरता पडता, कुर्ते पाजामे मे पार्टी का स्टिकर लगाये, ऑखो मे ऑसू लिये (बिना प्याज वाले, मेकअप वाले), इज्जत बचाने की दुहाई लगाता हुआ वोट मांगने आया था, लोगो को बहुत दया आई थी, लेकिन जीत की सूचना से आज तक उसके घर की तरफ से हवा भी हमारे मोहल्ले तक नही आई. हमारे मोहल्ले के लोग कई बार उस ओर गये, गालियॉ बकते हुए वापस आये. मैने जाना उचित नही समझा, खिचडी खाई थी, यदि उसे मेरा पेट थोडा भी भरा हुआ दिखता तो वो प्रपंच रच देता, और किसी इन्वेस्टिगेशन एजेंसी को मेरे भरे पेट की जॉच का भार सौंपता और खिचडी के साथ मेरी ऑते भी बाहर निकाल लेता. मै तो भारतीय जनता हूं, इसलिये आशावादी हूँ. आशा कर रहा हूँ कि मेरे खाने की थाली भी संसद की थाली की तरह १८ रुपये मे मिल जाये. अभी तो १८ रुपये मे प्याज का छिलका नही मिल रहा, थाली कहॉ से मिलेगी?

पिछले दिनो मेरे जैसे अन्य गरीब भारतीयों के यहॉ एक छोटा युवराजी नेता आ जा रहा था, वो आता था तो घर के एक आदमी का एक टाइम का खाना खा कर चला जाता था, फिर अखबारो मे छपता था कि उसने गरीब के यहॉ खाना खा कर देखा कि गरीबो को कितनी तकलीफ है, लेकिन कुछ दिन बाद पता चला कि उसने टुण्डे कबाब भी खाये हैं, मेरे यहॉ के खाने की हालत देखने के बाद उसने मेरी समस्या का ये हल निकाला कि गरीब के यहॉ खाना खाने से अच्छा है कि टुण्डे मियॉ के कबाब खाये जायें. मुझे मेरी गरीबी का ऐसा हल समझ नही आया. खैर मुझे तो कबाब नही मिल सकते लेकिन मुझे खिचडी की चिंता है, अधिकारिक संक्रांति खिचडी तो आज बनी है, लेकिन अनाधिकारिक संक्रांति की खिचडी तो मै कई दिन से खा रहा हूँ, सरकार मुझ से कई दिनो से पर्व मनवा रही है, मै सरकार का बहुत आभारी हूँ. चलता हूँ, टुण्डे कबाब वाली खबर फिर से पढूंगा, बहुत दिन हुए, कबाब की फोटो भी नही देखी.. आप लोग भी पर्व मना कर ऊब जायें तो टुण्डे कबाब की खबर पढ लेना, पढने मे ही कबाब का मजा आ जायेगा…

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