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2019, ईको सिस्टम, और समाज की तैयारी

हस्तक्षेप..
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समाज वोट देकर सत्तायें बनाता है और हटाता है, 2019 एक बार फिर सरकार को दोबारा बनाने या हटाने के अधिकार का वर्ष है। सरकार से भी परे यह निर्णय देश और समाज की दिशा को निर्धारित करने, सत्ता द्वारा देश और समाज को लाभ होगा या नही इसको भी सुनिश्चित करने वाला है। सतह से देखने पर यह एक चुनाव और सरकार के चुनने की प्रक्रिया मात्र लगता है लेकिन कुछ दलों के लिये, और पिछले 70 वर्षों में उनके द्वारा बिछाये गये तंत्रजाल के लिये, यह अस्तित्व के बने रहने का भी प्रश्न है। दैनिक जीवन की कठिनाईयों से जूझते समाज का एक बड़ा भाग चुनाव के दौरान या उसके पहले के बने वातावरण से प्रभावित होता रहा है। यही कारण है कि 60 साल तक देश में राष्ट्रीय भाव रखने वाली सत्ता का अभाव रहा, और जब यह भाव सत्ता में ही नही था तो समाज में भी यह भाव जागरूकता के स्तर पर नही रहा।

मोटे तौर पर स्वतंत्रता के बाद के वोटरों की पहली पीढी को पंचवर्षीय योजना का लैमन चूस थमा कर मूर्ख बनाया गया, और उसकी आड़ में राष्ट्रीय हित और राष्ट्रीय सुरक्षा की घोर अनदेखी की गयी। इस अनदेखी का परिणाम रहा कि स्वतंत्रता के तुरंत बाद कबाईली हमले की आड़ में नवजात पाकिस्तान जैसा देश भी हमारी भूमि हथिया रहा था तो तत्कालीन सरकार अपनी आंखे मूंदे बैठी थी। चीन तिब्बत को हड़प रहा था और भारतीय सत्ताधीश अपने कपड़े और सिगरेट विमान से मंगा रहे थे, ताकि उनकी कुलीन दिखने की इच्छा पूरी होती रहे। भूमि को माता मानने वाले देश के सत्ताधीश अपने राष्ट्रीय भाव से इतना हीन हो चुके थे कि चीन तिब्बत से आगे बढकर अक्साई चिन पर बैठ गया था, और संसद में कहा जा रहा था कि वह अक्साई चिन बंजर भूमि का टुकड़ा है।

राष्ट्रीयता से हीन सरकार देश और समाज हित के लिये नही थी, और क्योंकि शुरुआती सत्ताधीशों के अंदर मैकाले शिक्षा प्रणाली के सभी दोष भरपूर मात्रा में थे, इसलिये वह विदेशों को श्रेष्ठ मानते हुए ही अपने को उनके जैसा बनाने के प्रयास करती रही। गांधी की सादगी, स्वदेशी, समरसता सिर्फ भाषणों मे थी, पहले प्रधानमंत्री का रहन सहन, नैतिकता और व्यवहार अंग्रेजी समाज के समान ही हो गया था। देश के प्रति दायित्व समझने और उसके लिये कार्य करने की सोच ना होने के कारण एक भयावह और अदृश्य तंत्र (ईको सिस्टम) राजनैतिक, प्रशासनिक, शैक्षिक, सामाजिक और मीडिया के वर्ग में धीरे धीरे बनाया जा रहा था जो सत्ता की दृष्टि में स्वयं को बुद्धिजीवी प्रमाणित करने में सफल हो गया था।

स्वयं को बुद्धिजीवी घोषित कर यह सभी वर्ग एक ओर सत्ता की मलाई खाते थे, तो दूसरी ओर समाज के अंदर राष्ट्रीय हित के किसी विचार को आगे नही बढने देते थे। सत्ता की पुनः प्राप्ति कैसे हो, इसके लिये समाज के अंदर विभाजन करने की नीतियां अदृश्य रूप से बनाई जाने लगी थी। ऊपर से देखने पर यह अदृश्य तंत्र भद्र, कुलीन, बुद्धिजीवी लगता था किंतु इसके प्रभाव अत्यंत जहरीले, विभाजक और समाज को गर्त में ले जाने वाले था। सत्ता इसलिये इन्हें नही छेड़ती थी क्योंकि यह सत्ता को समर्थन देकर अपने को प्रभावशाली बने रहने के लिये उपयोग करता था, और क्योंकि जनता की दृष्टि में इस वर्ग को बुद्धिजीवी स्थापित कर दिया गया था, तो सत्ता इनका उपयोग अपनी गलत नीतियों को छुपाने के लिये, या फिर उन नीतियों को अत्यंत ही देशहित का बताने के लिये उपयोग करती थी। दशकों से बना यह तंत्र आज भी देश की जड़ों से चिपका हुआ है। पिछले 4 वर्षों से इसकी जकड़ में ढिलाई आयी है, और इसके कारण इसे आज अपने अस्तित्व का संकट लगने लगा है।

यह वो अदृश्य ईको सिस्टम है जिसके अनेकों वर्ग हैं। एक वर्ग जो प्रशासन में बैठ कर जनहित की नीतियों के लिये आवंटित धन को नेताओं तक पहुंचाता है और उसका कुछ हिस्सा अपने लिये भी रख लेता है। अनेकों आईएएस अधिकारी, सरकारी नेताओं के सलाहकार, राजनेताओं की कृपा से बने बोर्ड के अध्यक्ष इस वर्ग में आते हैं। दूसरा वर्ग सामाजिक रूप में सत्ता से जनहित के नाम पर एनजीओ के रूप में पैसा लेकर उससे अपनी अय्याशी का सामान इकट्ठा करता है। यह वर्ग मानवाधिकार हनन के नाम पर सेना का विरोध भी करता है तथा जनजातीय क्षेत्रों में की जाने वाली प्रत्येक विकास योजनाओं को बंद कराने को उद्यत रहता है। इनकी दुष्टता यहां तक है कि अपनी शराब के बिल भी एनजीओ के कार्ड से भरने के उदाहरण पाये गये हैं। अनेकों एनजीओ इस वर्ग के रूप में कार्यरत रहते हैं। तीसरा वर्ग शैक्षिक रूप से समाज में विभाजन करता है और भारतीय छात्रों को उनके इतिहास का विकृत रूप बता कर उन्हें राष्ट्रीय भाव से हीन करता है, और इस प्रकार यह एक पूरी पीढी को बर्बाद कर देता है। दिल्ली, हैदराबाद, बंगाल स्थिति अनेकों वामपंथी प्रभाव के विश्वविद्यालय और शिक्षक इसके उदाहरण हैं। चौथा वर्ग मीडिया के रूप में हर उस आवाज को महत्वहीन और बेकार घोषित कर देता है जो इस पूरे ईको सिस्टम के विरुद् होती है। साथ ही अपने साथी सामाजिक, शैक्षिक और राजनैतिक तंत्र के लिये यह एक कवच का काम करता है और उनकी छवि को चमकाने के लिये प्रत्येक सीमा को पार कर जाता है। विभिन्न पत्रकार, स्तंभ लेखक इसके लिये आज भी कार्य करते हैं।

अनेको दशकों तक यह ईको सिस्टम निर्बाध रूप से काम करता रहा और सफलतापूर्वक भारतीय समाज को सुलाये रखने में सफल रहा था। 800 वर्षों से जो समाज बाह्य आक्रमण के विरुद्ध लगातार संघर्ष कर अपनी संस्कृति और परंपरा को जीवित रखने में सफल रहा था वह इन कथित बुद्धिजीवीयों की बातों से प्रभावित होने लगा। धीरे धीरे इसने भारतीय दृष्टिकोण को बदलने का प्रयास करना आरंभ किया। शांति और अहिंसा के नाम पर देश को कायर बनाया गया, अपने गौरवशाली इतिहास के स्थान पर बाह्य आक्रमणकारियों का गुणगान किया गया, समाज में वर्णभेद को मिटाने के स्थान पर बढावा देकर वर्ग संघर्ष की नींव रखी गयी, मानवाधिकार के नाम पर आतंकियों के लिये रक्षा कवच तैयार किये गये, अपनी राजनैतिक तुष्टिकरण के लिये धार्मिक भेदभाव उत्पन्न किया। भारतीय समाज के अंदर तुष्टिकरण को मान्यता मिले, इसके लिये संविधान में धर्मनिरपेक्ष शब्द को डाल दिया गया, फिर उसी धर्मनिरपेक्षता की हत्या शाहबानो केस में कर दी, लेकिन इस ईको सिस्टम ने भारतीय जनमानस को आभास भी नही होने दिया कि धर्मनिरपेक्षता की हत्या संसद में ही कर दी गयी है।

भारतीय समाज की विशेषता है कि यह अपनी परंपरा और संस्कृति से सदैव जुड़ा रहता है। इस जुड़ाव को तोड़ने के लिये एक नयी चाल पर्यावरण संरक्षण के नाम पर जोड़ दी गयी। भारतीय उत्सवों, परंपराओं का या तो मजाक उड़ाया जाने लगा, उन्हें पितृसत्तात्मक बताया गया, उन्हें पर्यावरण विरोधी बताया गया, ताकि उन उत्सवों के प्रति जनमानस में नकारात्मक भाव आये, दूसरी ओर अनेकों प्रकार के मदर्स डे, फादर्स डे, क्रिसमस डे, न्यू इयर डे, ईद, ईस्टर को भारतीय पर्वों से अधिक उल्लास और हर्ष का पर्व बताने पर जोर दिया जाने लगा। और इसके लिये जगह जगह अपने कार्यालयों में कार्यक्रम आयोजन किये जाने लगे। यह विचार धीरे धीरे सामान्य लोगों के दिमाग में जगह बनाने में सफल हुआ, और आज अनेकों कार्यालयों में यह पर्व मनाये जाते हैं किंतु नवरात्रि, चैत्र शुक्ला प्रतिपदा, मकर संक्रांति, रक्षाबंधन, तीज, वसंत पंचमी जैसे उत्सवों के लिये शायद ही किसी ऑफिस में कोई कार्यक्रम का आयोजन किया जाता हो।

इस ईको सिस्टम को समाप्त करने के लिये यह आवश्यक था कि राजनैतिक, प्रशासनिक, शैक्षिक, सामाजिक, मीडिया के क्षेत्र में राष्ट्र भाव रखने वाले व्यक्तियों को लाया जाये। इनमें से जो राजनैतिक, प्रशासनिक और शैक्षिक क्षेत्र है उनमे स्थापित व्यक्तियों को हटाये जाने की प्रक्रिया लंबी है, अपने रिटायरमेंट तक वह व्यक्ति सिस्टम में बने रहने का अधिकार रखते हैं। सामाजिक और मीडिया के क्षेत्र के लोग अपने विचार रखने की स्वतंत्रता रखते हैं लेकिन उनकी जीवन रेखा को समाप्त करने का अधिकार राजनैतिक और प्रशासनिक क्षेत्र के लोगों पर है। मीडिया और एनजीओ के क्षेत्र में इस ईको सिस्टम के एकछत्र राज्य में पहले गिरावट आई, और अपनी महत्ता कम होने की छटपटाहट से यह वर्ग नये मीडिया के रूप में सक्रिय हुआ। अनेकों वेबसाइट के माध्यम से अपने अस्तित्व को बचाये रखने के लिये यह अभी भी व्याकुल है, लेकिन इसी कशमकश में अपने तंत्र को पुनः संगठित करने में यह काफी हद तक सफल हो रहा है। पहले जो कार्य यह टीवी पर आ कर करता था, अब यह वेबसाइट, यूट्यूबर के चैनल्स, वॉट्सऐप और, टेलीग्राम के मैसेज द्वारा कर रहा है।

2014 का चुनाव जब हुआ था तब इस नये मीडिया पर राष्ट्रभाव रखने वाले व्यक्तियों का प्रभुत्व था, और उन्होंने भारतीय जनमानस को जागरूक करने में इस मीडिया का सदुपयोग सफलतापूर्वक किया। 2019 एक बार फिर सत्ता के चुनने का वर्ष है, जिस ईको सिस्टम की बात ऊपर की गयी वह अपनी पूरी क्षमता के साथ सक्रिय है क्योंकि उसके लिये जीवन मरण का संकट है, और यही कारण है कि इस सिस्टम ने इस नये मीडिया में कुछ प्रक्रियायें निर्धारित की हैं। यह झूठ खबरे फैलाता है और इसके लिये यह तकनीक का उपयोग करता है। फोटोशॉप द्वारा बनाई गयी फोटो, छद्म वेबसाइट पर झूठे समाचार छापे जाते हैं, फिर उन्हें फेसबुक, वॉट्सऐप, टेलीग्राम द्वारा फैलाया जाता है। घटनाओं को तोड़मरोड़ कर बेचा जाता है, सलेक्टिव समाचार लिखे जाते हैं। और यह ईको सिस्टम के सभी वर्गों द्वारा किया जाता है। आतंकी के मरने पर उसके जीवन के दुख को ऐसा दिखाया जाता है मानो उसका आतंकी बनना सर्वथा उचित हो। भारतीय उत्सव जो समाज को उसकी परंपरा से जोड़ते हैं उसके लिये यह पूरा तंत्र एक साथ सक्रिय होता है, सामाजिक कार्यकर्ता जागरूकता के नाम पर उस पर्व के अनेकों दोष बताने लगते हैं, तो अपनी बुद्धिमता के स्थान पर अपने फूहड़पने से सेलेब्रिटी बने लोग ट्वीट करने लगते हैं, अचानक पर्यावरण पर लेख और डेटा प्रस्तुत किया जाने लगता है,लेकिन अन्य धर्मों के उत्सवों पर यही सब लोग हर्ष और उल्लास के साथ अपनी फोटो खिंचाते हैं मानो हिंदू समाज के उत्सव पर्यावरण विरोधी व बाकि सब पर्यावरण हितैषी हों।

2019 का युद्ध देश और समाज के लिये निर्णायक है, यह महाभारत के अंतिम दिनों के युद्ध के जैसा है जब दोनो ओर से सभी प्रकार के उपाय किये जायेंगे। ईको सिस्टम अपनी पूरी क्षमता के साथ पहले से ही सक्रिय हो चुका है, भीमा कोरेगांव से लेकर, आरक्षण आंदोलन तक यह अपनी उपस्थिति को प्रमाणित कर चुका है। कमजोर होने के बाद भी यह अभी समाज में विघटन और संघर्ष कराने की क्षमता रखता है। राज्यों के चुनावों में वोटर की मानसिकता को इसने प्रभावित किया है और विभिन्न प्रकार से बहला फुसला कर वोटर को उसके राष्ट्रीय भाव से दूर रखने में सफल रहा, जिससे सत्ता परिवर्तन हुआ और उसके परिणाम भी सामने आ गये। राज्य फिर पुराने दौर में जाने की ओर अग्रसर है। और इन राज्यों में इसी ईको सिस्टम के पुनर्गठन का काम शुरु हो चुका है।

2019 का चुनाव 2024 तक नही, अगले कई दशकों तक के लिये भारत की दिशा और दशा को निर्धारित करेगा। राष्ट्रभाव से हीन समूह अपने सभी हथकंडे अपना रहा है, वह पाकिस्तान तक से सहायता की आशा रखता है, और यदि भारतीय जनमानस ने इस अदृश्य ईको सिस्टम को नही समझा, और अपने दायित्व का अनुसरण नही किया तो फिर उसे अपने अगली पीढी को उसी पीड़ा से गुजारना होगा, जिससे उसकी पिछली पीढियां गुजरी थी। भारतीय वोटर चुनाव के पहले बनाये गये वातावरण से प्रभावित होता है, और यह ईको सिस्टम समाज में जाति विद्वेष, भेदभाव, धार्मिक असहिष्णुता के माहौल को बनाने और फिर उसका विज्ञापन करने के लिये प्रयासरत है। अब यह भारतीय वोटर का दायित्व है कि वह इस ईको सिस्टम की रीढ की हड्डी पर चोट कर फिर से राष्ट्रभाव रखने वाली सत्ता को चुने। और यह चुनाव इसलिये नही कि ईको सिस्टम को तोड़ना है, बल्कि इसके साथ साथ देश और समाज के लिये किये गये कार्यों और प्रयासों को देख कर सत्ता को चुने, मेरी जाति श्रेष्ठ है के स्थान पर मेरा देश आगे बढे के भाव को अपने मन में रखते हुए सभी को आगे बढना होगा। 2019 चुनाव नही बल्कि 800 वर्षों से चले आ रहे उस संघर्ष का पटाक्षेप करके उस विश्व गुरु की स्थापना करने की दिशा में एक और कदम होगा जिसका सपना सदियों से संघर्षरत रही हमारी पीढियों ने देखा है।

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