Posted On: 25 Jul, 2011 Others में
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इंटरनेट को आज ज्ञान का सागर यूं ही नही कहते. यहां जो चाहिए वह आपको मिलेगा बस ढ़ूंढने की कला आनी चाहिए. अब हम आज भारतीय रेल पर एक धमाकेदार व्यंग्य की खोज पर थे. काफी खोज, गूगल शास्त्र के ना जानें कितने पेज खंगाल मारे लेकिन यह हास्य कविता तो फेसबुक की गलियों में छुपी बैठी थी. लेकिन हम भी पक्की धुन वाले हैं, जब सोच लिया की जागरण जंक्शन पर भी भारतीय रेल की मस्तानी तस्वीर डालेंगे तो डालेगे.
अब लीजिए मजा हुल्लड मुरादाबादी की हास्य कविता “भारतीय रेल” का. यह कविता एक महाशय की पहली रेल यात्रा का विवरण है. बड़े ही मजेदार रुप से इन्होंने भारतीय रेल की दशा को हास्य कविता के माध्यम से प्रदर्शित किया है.
भारतीय रेल – हास्य कविता
एक बार हमें करनी पड़ी रेल की यात्रा
देख सवारियों की मात्रा
पसीने लगे छुटने
हम घर की तरफ़ लगे फूटने
इतने में एक कुली आया
और हमसे फ़रमाया
साहब अन्दर जाना है?
हमने कहा हां भाई जाना है….
उसने कहा अन्दर तो पंहुचा दूंगा
पर रुपये पुरे पचास लूँगा
हमने कहा समान नहीं केवल हम हैं
तो उसने कहा क्या आप किसी समान से कम हैं ?….
जैसे तैसे डिब्बे के अन्दर पहुचें
यहाँ का दृश्य तो ओर भी घमासान था
पूरा का पूरा डिब्बा अपने आप में एक हिंदुस्तान था
कोई सीट पर बैठा था, कोई खड़ा था
जिसे खड़े होने की भी जगह नही मिली वो सीट के नीचे पड़ा था….
इतने में एक बोरा उछालकर आया ओर गंजे के सर से टकराया
गंजा चिल्लाया यह किसका बोरा है ?
बाजु वाला बोला इसमें तो बारह साल का छोरा है…..
तभी कुछ आवाज़ हुई ओर
इतने मैं एक बोला चली चली
दूसरा बोला या अली …
हमने कहा कहे की अली कहे की बलि
ट्रेन तो बगल वाली चली..
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