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सुख-दुख एक हीं सिक्के के दो पहलू हैं।

हास्य- व्यंग्य के विविध रंग
हास्य- व्यंग्य के विविध रंग
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मैं घोर भाग्यवादी हूं। मेरा मानना है इनसान के जो भाग्य में होगा वह मिलेगा हीं, चाहे वह हाथ-पर हाथ धरा क्यों न रहे। कहा भी गया है कि जब ईष्वर देता है तो छप्पर फाड़कर देता है। मैं छप्पर फटने का इंतजार कर रहा हूं। लेकिन मेरे इंतजार को ,मेरी पत्नी मेरा आलसीपन मानती है। आखिर क्यों न माने, तुलसी बाबा पहले हीं लिख गये हैं, जाकी रही भावना जैसी, हरी मूरत देखी वह तैसी। मैं भाग्यवादी होने के साथ गहरे अर्थों में अध्यात्मिक भी हूं। मै ज्ञानीजनों के इस बात से सहमत हैं कि सुख- दुख मिश्रित है, अर्थात सुख के बाद दुख, दुख के बाद सुख। पर मेरी पत्नी मुझे ज्ञानी नहीं मानती। पड़ोसियों की नजर में भी मैं गंवार हूं। मानेगी भी कैसे, कहा भी गया है, घर की मुर्गी दाल बराबर। जब लोग तुलसीदास की तरह मुझे घर- घर पूजने लगेंगे, तब सबको मेरी महानता मालूम होगी। तब न पत्नी मुझे भाव देगी। तब न पड़ोसी मेरे यहां दरबार लगाएंगे। फिलहाल पत्नी की नजर में मैं आरातलबी हूं, आलसी हूं, निकम्मा हूं, तभी तो मैं ज्यादा कमाना नहीं चाहता । जबकी मेरा जीवन दर्षन यह है कि यह दुनिया दो दिन का मेला है। इस दो दिन की जींदगी में हाय हाय क्या करना। मौज मस्ती कर लिया जाए। कौन मकान और घर लेकर इस संसार से जाता है। सिकन्दर भी तो खाली हाथ हीं गया था। मेरे पत्नी को अभी ज्ञान की प्राप्ति नहीं हुयी है, कोई बात नहीं हो जाएगी, क्योंकि उसको ज्ञानी पति जो मिला है। मैं हूं न उसको उपदेष पिलाने को ा आखिर मेरा ज्ञान किस काम आयेगा। वह ज्ञान किस काम का जो अपने के हीं काम न आए। लेकिन मेरे प्रवचन से परिवार की षांति व्यवस्था को खतरा भी उत्पन्न हो सकता है। लाठी चार्ज की भी नौबत आ सकती है। लेकिन इससे क्या मुझे उपदेष नहीं देना चाहिए। खतरा किस काम में नहीं ? क्या बिना खतरा उठाये आज की दुनिया में कुछ हो सकता है। मेरे प्रवचन के दौरान बेलन एवं झाड़ू बरसने की प्रबल संभावना है। लेकिन अगर मैं झाड़ू से डर जाऊंगा तो क्या कायर नहीं कहलाऊंगा। उसे समझाना भी तो मेरा फर्ज है। मैं झाड़ू बेलन से डरता नहीं, क्योंकि मैं सत्याग्रही हूं सत्याग्रह करना जानता हूं। रामलीला मैदान में लाठी डंडा खा चुका हूं। छात्र जीवन में पुलिस वाले के हाथों में पिटा चुका हूं। कोई पहली बार नहीं मेरे साथ यह हादसा होगा। दूसरी बात यह है कि वह नासमझ है कि ,जो पति परमेष्वर पर हाथ उठायेगी, लेकिन मैं तो ज्ञानी हूं न। मैं हाथ नहीं उठाऊंगा। वरना किस मुंह से उससे खुद को बड़ा कहुंगा। उसके और मुझमें फिर अंतर हीं क्या रह जाएगा। मैं उससे उम्र में एवं अनुभव दोनों में बडा हूं। उसे समझाना मेरा फर्ज है। उसे कर्तव्यबोध कराना जरूरी है। मेरा ज्ञान कह रहा है कि मेरी पत्नी माया के वषीभूत है ,वह ज्यादा धन मुझसे कमवाकर अपने अहंकार का विस्तार करना चाहती है। अपने सहेलियों में प्रभाव जमाना चाहती है। पड़ोसियों को जलाना चाहती है। लेकिन मैं ऐसा होने दूंगा। उसको माया में पड़़ने नहीं दूंगा। आखिर मैं उसका पति हूं उसका हित-अनहित सोंचना मेरा कर्तव्य है। अगर मैं नहीं सोचूंगा तो आखिर दुनिया क्या कहेगी। न मैं ज्यादा कमाऊंगा और न उसे किसी चीज का अहंकार होगा। न वह पड़ोसियों का जलायेगी। वह नहीं पढ़ी है तो क्या। मैं तो पढ़ा-लिखा हूं न। मैं यह पढ़ा हूं कि साईं इतना दीजिए जामे कुटुम समाय मैं भी भूखा ना रहूं साधु न भूखा जाय। आखिर मैने उससे जनम- जनम साथ निभाने का वादा किया है। उसके प्रति भी तो मेरा कुछ कर्तव्य बनता है।
उसे यह नहीं पता है कि दुख के बाद सुख का अहसास होता है। वह केवल सुख हीं सुख चाहती है ,अगर मैं केवल उसे सुख के हीं वातावरण में रख दूं तो क्या वह उब नहीं जाएगी। फिर उसे असली सुख का अहसास कैसे होगा। वह चाहती है कि मैं कुछ कमाकर बाल- बच्चों के लिए रखूं। सब तो रख हीं रहे हैं। मैं क्यों माया में पड़ूं। क्यों न मैं कुछ अलग करूं। मेरी बचपन से इच्छा कुछ अलग करने की रही है। सो मैं कुछ अलग कर रहा हूं। अपने बच्चों को कुछ कमाकर नहीं रख रहा हूं। और घर का माल उड़ा रहा हूं। मैं चाहता हूं कि मेरे बच्चेे स्वयं स्वालंबी बने। अगर सब मैं हीं कर दूंगा तो वे क्या करेंगे। उन्हें करने के लिये भी तो कुछ चाहिये वरना वे मेरे जैसे बैठे बैठे रोटी तोड़ेंगे। इससे उनका जीवन बेमजा हो जाएगा। फिर उनकी प्रतिभा कैसे निखरेगी। चुनौतियों का सामना करने से न। ओषो ने कहा था कि काॅपी का उतना महत्व नहीं यूनिक चीज हीं मूल्यवान होती है। इसलीये मैं यूनिक बन रहा हूं। ठीक कर रहा हूं न ?

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