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सेहत-से खिलवाड़?सुभाष बुड़ावन वाला

koi bhi ladki psand nhi aati!!!
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सेहत-से खिलवाड़??? सर,देश भर से लिए गए दूध के नमूनों में से करीब 70 प्रतिशत का फेल हो जाना इस आशंका पर मुहर लगाता है कि हर कहीं मिलावटी दूध की बिक्री हो रही है। चूंकि इस आशय का हलफनामा खुद केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में पेश किया है इसलिए संशय की गुंजाइश ही नहीं रह जाती। सच तो यह है कि इस तथ्य के बाद संशय घबराहट में बदल जाती है कि अनेक जगह सेहत के लिए घातक डिटर्जेट से दूध तैयार किया जा रहा है। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट सरकार को चाहे जो निर्देश दे, इसकी उम्मीद कम ही है कि मिलावटखोरों के दुस्साहस पर कोई लगाम लगेगी। मुश्किल यह है कि समस्या केवल दूध में मिलावट की ही नहीं है। देश में ऐसे खाद्य एवं पेय पदार्थो की संख्या बढ़ती चली जा रही है जिनमें या तो मिलावट होती है या फिर घटतौली। इससे भी गंभीर बात यह है कि कई बार तो खाने-पीने की वस्तुओं में सेहत के लिए बेहद हानिकारक और कभी-कभी तो विषैले तत्व मिलाए जाते हैं। सेहत से यह खुला खिलवाड़ इसलिए और खतरनाक हो जाता है, क्योंकि औसत भारतीय स्वास्थ्य और सफाई के मामले में उतना सतर्क नहीं जितना उसे होना चाहिए। शायद यही कारण है कि भारत हर तरह के छोटे-बड़े रोगों का घर है। आखिर इस तथ्य से कौन इन्कार करेगा कि देश के विभिन्न हिस्से किसी ने किसी संक्रामक बीमारी की चपेट में बने ही रहते हैं। कई बार ये बीमारियां गंभीर रूप ले लेती हैं, लेकिन थोड़ी हलचल के बाद सब कुछ पहले की ही तरह ढर्रे पर आ जाता है। स्वास्थ्य एवं सफाई के मामले में सब चलता है वाले रवैये के कैसे दुष्परिणाम भोगने पड़ रहे हैं, इसे इस तथ्य से समझा जा सकता है कि सामान्य संक्रामक बीमारियों से निपटने में प्रति वर्ष करीब 70 हजार करोड़ रुपये खप जाते हैं। यह रकम देश के मौजूदा स्वास्थ्य बजट का दोगुना है। कोई भी समझ सकता है कि अगर इस स्थिति का निदान नहीं होता तो हम विकसित और खुशहाल राष्ट्र कभी नहीं बन सकते। खाद्य-अखाद्य वस्तुओं में मिलावट से जूझने और सेहत और सफाई के प्रति बेपरवाह रहने वाला समाज तो अपने पैरों पर बेड़ियां ही डालने का काम करेगा। नि:संदेह यह समय की मांग है कि सरकार खाने-पीने की वस्तुओं की गुणवत्ता के मानक तय करने के साथ ही उन पर सख्ती से अमल भी कराए, लेकिन इस मामले में समाज को भी चेतना होगा। जब तक आम लोग अपनी जिम्मेदारी के प्रति सजग नहीं होते तब तक हालात सुधरने वाले नहीं हैं। यह एक कड़वी सच्चाई है कि मिलावट करने अथवा गुणवत्ता के मानकों से समझौता करने या फिर सेहत-सफाई के मामले में लापरवाही का परिचय देने वाले लोग कहीं बाहर से नहीं आए। ये सभी अपने ही बीच के हैं। ऐसे लोग अपने अधिकारों को लेकर तो शासन-प्रशासन पर खीझ उतारते हैं, लेकिन एक जिम्मेदार नागरिक होने का फर्ज निभाते समय सब चलता है का जुमला उछाल देते हैं। इसका एक बड़ा कारण एक ओर जहां नियम-कानूनों के अमल पर ध्यान न दिया जाना है वहीं राष्ट्र के चरित्र निर्माण की उपेक्षा किया जाना भी है। बेहतर हो कि गुणवत्ता संबंधी मानकों के उल्लंघन और सेहत के लिए संकट पैदा करने वाली हर बाधा का सामना सरकार और समाज मिलकर करे। ..-सुभाष बुड़ावन वाला,18,शांतीनाथ कार्नर,खाचरौद[म्प] –

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