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इज्जत या रोटी-सुभाष बुड़ावनवाला

koi bhi ladki psand nhi aati!!!
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इज्जत या रोटी-सुभाष बुड़ावनवाला


एक बुजुर्गवार बताया करते थे कि घर छोड़कर रेस्ट्रॉन्ट में खाने-पीने वो लोग जाते हैं, जिनकी पत्नियां उन्हें घर में इज्जत के साथ खाना नहीं देतीं। सो बंदा बाहर रेस्ट्रॉन्ट में वेटरों को टिप वगैरह देकर इसके बदले उनसे इज्जत हासिल करने जाता है। अब बाहर और खासकर धांसू रेस्ट्रॉन्ट्स में भी खाकर इज्जत ना मिल रही है, ना बच रही है। भीख मांग कर खाने में और धांसू रेस्ट्रॉन्ट्स में खाने में बस यही फर्क रह गया है कि भीख मांगकर खाने में बेइज्जती कम होती है, सिर्फ एक ही लाइन में लगकर खाना मिल जाता है। जो देना है, एक बार में दे दे। धांसू रेस्ट्रॉन्ट में तीन-तीन, चार-चार बार लाइनों में लगो। पहली लाइन में लगकर बताओ क्या खाना है, रकम थमाओ, रसीद कटाओ। दूसरी लाइन में लगकर रसीद दिखाओ और खाना सप्लाई सेंटर से खाना पकड़ो। तीसरी-चौथी लाइन में तब लगिए अगर रोटी तीन के बजाय चार खानी हो, तो दोबारा रकम देकर रसीद कटाओ। इतनी लाइनों में लगकर शर्मदार बंदा सोचने लगता है कि अपने पैसे खर्च करके किसी राहत शिविर में खाना खा रहे हैं। उग्र युवा पीढ़ी को धैर्य, संयम की शिक्षा देने की एक तरकीब मैंने यह सोची है कि बेट्टे ऐसे रेस्ट्रॉन्ट्स में भरपेट खाना खाकर दिखाओ। इससे बंदे की चमड़ी मोटी हो जाती है, वह दुनिया को झेलने के काबिल हो जाता है। इस संबंध में रेस्ट्रॉन्ट दो तरकीबें अपनाते हैं। तरकीब नंबर एक तो यह कि रेस्ट्रॉन्ट वाले आपकी सीट के पास व्यग्र, प्रतिबद्ध खाने के इच्छुक सीटाकांक्षी छोड़ देते हैं, जो ऐसे घूरते हैं कि अबे उठ, कित्ता खाएगा बे। तरकीब नंबर टू, यह कि सीटाकांक्षी रेस्ट्रॉन्ट के गेट से बाहर लाइन में रहते हैं और झांक-झांककर अंदर वालों को बताते रहते हैं कि उठो तुम्हारी वजह से हम भूखे हैं। अपनी ही रकम से खरीदा गया खाना अपराध सा लगता है। मैं अपनी पत्नी को समझाता हूं कि बाहर खाना बहुत बेइज्जती का काम हो गया है अब। पत्नी साफ करती है, जमाना बदल गया है, अब इज्जत या रोटी में से किसी एक को ही चुन सकते हो।प्र-सुभाष बुड़ावन वाला,18,शांतीनाथ कार्नर,खाचरौद[म्प]

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