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दर्द से डरिए नहीं, उसे समझिए!-सुभाष बुड़ावन वाला

koi bhi ladki psand nhi aati!!!
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दर्द से डरिए नहीं, उसे समझिए, उसे चाहे हम कुछ भी कर लें, दर्द और डर हमारे जीवन का अभिन्न हिस्सा हैं। बर्लिन से शुरू हुई ग्रिनबर्ग प्रक्रिया के मुताबिक दर्द और डर को टालना नहीं चाहिए, बल्कि उस पर ध्यान देना चाहिए। चाहे बुरी तरह दुखती एड़ी हो, लगातार जारी दर्द हो या अपने किसी नजदीकी व्यक्ति को खोने की पीड़ा हो, हम डर और दर्द हमेशा शारीरिक और मानसिक, दोनों स्तरों पर महसूस करते हैं। अगर हम किसी फिजियोथेरैपिस्ट या मनोचिकित्सक के पास जाएं तो वह एक या दो लक्षणों के हिसाब से किसी के शारीरिक दर्द या व्यग्रता का इलाज करते हैं। लेकिन ग्रिनबर्ग मेथड कहती है कि डर और दर्द के लिए हमारे व्यवहार को बदलने की जरूरत है। ‘हम उन शारीरिक लक्षणों पर ध्यान दे सकते हैं और साथ ही हमारे मन और मस्तिष्क की हालत बेहतर कर सकते हैं।’ दर्द से भी दर्दनाक : योएर्ग जाइफार्ट जर्मनी में प्रोजेक्ट मैनेजर हैं और पर्वतारोही हैं। उन्हें अचानक कोहनी में दर्द शुरू हुआ। उन्होंने फिजियोथेरैपी से लेकर दर्द निवारक गोलियों तक सब लेकर देख लिया। छह महीने बाद उन्हें लगने लगा कि उनकी कोहनी पूरी तरह खराब हो गई है। वह हताश होने लगे। ‘दर्द पर मेरी प्रतिक्रिया दर्द से भी बुरी थी। क्योंकि इस प्रतिक्रिया के कारण मैं कड़ी मेहनत नहीं कर पाया और इससे मैं कुंठित होने लगा और निराशा ने मुझे घेर लिया।’ फिर उन्होंने बर्लिन में ग्रिनबर्ग प्रोजेक्ट में हिस्सा लिया। उन्हें शुरुआत में तो यह तरीका बहुत गैर पारंपरिक लगा। लेकिन एक सेशन के बाद ही उनकी कोहनी का दर्द पूरी तरह गायब हो गया। उन्होंने नई तकनीक सीखी जो उन्होंने अपनी शुरुआती कसरत में मिला ली। यहां आने वाले बाकी लोग माइग्रेन, कमर दर्द, गर्दन दर्द, कांधे में या घुटने में दर्द की शिकायत लेकर आए थे। तीन महीने बाद, जब प्रोजेक्ट खत्म हुआ, 180 में से 130 मरीजों ने कहा कि उनका दर्द काफी हद तक कम हो गया। बर्लिन में ग्रिनबर्ग मेथड का इस्तेमाल करने वाली एमिली पोएल बताती हैं, ‘अक्सर जब हमें दर्द होता है तो हम सांस रोक लेते हैं या जिस स्थिति में दर्द हो रहा है उस स्थिति में जाने या हिलने डुलने से बचते हैं। इससे और दर्द होता है। कई मामलों में इन कारणों से दर्द बना रहता है और उसकी तीव्रता बढ़ती जाती है।’ प्रैक्टिक्शनर का कहना है कि वह आने वाले लोगों को बताते हैं कि वह कहां तनाव बांध रहे हैं या फिर दर्द के खिलाफ कुछ कर रहे हैं। ‘उद्देश्य है कि लोगों को पता चले कि उनकी मांसपेशियां यह काम पहले से ही कर रही हैं इसलिए वह किसी तरह की प्रतिक्रिया नहीं दें।’ इस क्रिया को सिखाने वाले इलाम लांगोट्स्की कहते हैं, ‘यह सिर्फ जागरूकता से कहीं ज्यादा है। यह शारीरिक अनुशासन है।’ यहां आने वाले लोगों को फिर डर और दर्द का सामना करना सिखाया जाता है जिसमें सांस लेने और शरीर को ढीला छोड़ने के साथ अलग अलग कसरत भी सिखाई जाती है। क्या है ग्रिनबर्ग : ग्रिनबर्ग चिकित्सा आवि ग्रिनबर्ग ने 1980 में विकसित की थी। वह नर्स थे और रिफ्लेक्सोलॉजी, योग और मार्शल आर्ट्स जैसी कई और चीजें उन्होंने सीखी थीं। कई साल से बीमार लोगों के साथ काम करते करते ग्रिनबर्ग ने उनके अलग अलग तरह के सवाल पूछने शुरू किए। लांगोट्स्की ने बताया कि यह पद्धति लोगों को सीखाती है। इस दौरान उनसे कई सवाल भी पूछे जाते हैं। ‘उन्हें कौन से उपकरण दिए जाएं, उन्हें कौन सा अभ्यास करना चाहिए ताकि दर्द कम हो। और वह अपने शरीर की जिम्मेदारी कब खुद पूरी तरह फिर से ले सकते हैं। तो कुल मिला कर प्रैक्टिक्शनर उनकी बीमारी को खत्म नहीं करता, लेकिन उन्हें इसे खत्म करने का तरीका बताता है।’ ग्रिनबर्ग पद्धति अपनाने वाले लोगों का कहना है कि वह इससे अपने शरीर से फिर जुड़ जाते हैं। ‘सामान्य तौर पर लोग दर्द टालने की कोशिश करते हैं और उन चीजों या बातों से भी दूर रहते हैं जो हमें तकलीफ देती हैं, डराती हैं। लेकिन चाहे मामला कार दुर्घटना का हो, सीले हुए रिश्तों का हो, किसी चहेते की मृत्यु हो या फिर निजी गलतियां हों। यह सब मानसिक या शारीरिक चोट पहुंचा सकता है। इससे हमारे विश्वास और रिश्तों पर असर होता है।’ मन और शरीर : पारंपरिक रूप से अक्सर मनोविज्ञान या मनोचिकित्सा व्यक्ति के इतिहास या किसी घटना को फिरसे सुनाने पर केंद्रित रहते हैं। वहीं ग्रीनबर्ग मेथड सिखाती है कि कैसे तनाव की घटनाओं को पहचाना और उसके शरीर पर असर को समझा जा सकता है। और कैसे ये घटनाएं हमारी शारीरिक प्रतिक्रियाओं में शामिल होती है जैसे कि सांस रोकना या फिर शरीर के किसी हिस्से में तनाव बनाना। ग्रिनबर्ग स्कूल चलाने वाले फेरेड मानासे कहते हैं, ‘ऐसा नहीं है कि हम किसी का आत्मविश्वास बढ़ाते हैं, लेकिन अगर वह अपनी अनिश्चितताएं रोक देंगे तो वह अपने आप विश्वास से भरपूर हो जाएंगे।’ बर्लिन में क्लाउडिया ग्लोविक बताती हैं, ‘अगर हम उन लोगों को देखें जिनके बचपन में उनसे दुर्व्यवहार किया गया हो, हम उन्हें ताकतवर होना नहीं सिखाते बल्कि हम उन्हें खास स्थिति में अनिश्चितता से बचने का तरीका बताते हैं। उन्हें सिखाते हैं कि आज होने वाली किसी घटना की तुलना पहले किसी स्थिति से न करें। आप सोच सकते हैं कि इस तरह के इतिहास वाले लोगों को अपने शरीर से तालमेल बिठाने में कितनी परेशानी होती होगी। इन घटनाओं से कितना दर्द मिला होगा। सालों के इस दर्द से कुछ लक्षण अपने आप पैदा हो जाते हैं।’ हालांकि इस तरीके से सभी लोगों का इलाज संभव नहीं है। अलग अलग लोगों को थेरैपी भी अलग अलग चाहिए। ग्लोविक का कहना है कि ग्रिनबर्ग मेथड किसी चिकित्सा या मनोचिकित्सा का विकल्प नहीं है। और अगर जरूरत होती है तो मरीज को दूसरे विशेषज्ञों के पास भेजा जाता है। कुल मिला कर यह डर या दर्द ठीक करने की रेसिपी नहीं, बल्कि इसे समझने की एक प्रक्रिया है।-सुभाष बुड़ावन वाला,18,शांतीनाथ कार्नर,खाचरौद[म्प]*

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