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गुरुचांडालयोग से “त्रिशंकु” बने बागी

PAPI HARISHCHANDRA
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व्यंग ,उत्तराखंड के चाणक्य सिद्ध हो चुके हरीश रावत जी ( सत्तासीन इन्द्र ) धोनी की तरह कूल मनो वैज्ञानिक चालों से स्वर्ग और नर्क के गुरु चाण्डालों को अपना लोहा मनवा चुके हैं | उत्तराखंड मैं वही सब कुछ हो रहा है जो त्रिशंकु के समय हुआ था | …………………..अपने धर्म पर कभी टिक कर नहीं रहने वाले गुरु विश्वामित्र की तरह ही एक क्षत्रिय से ब्राह्मण बने गुरु सतपाल महाराज जी का हरक सिंह रावत जी को स्वर्ग मैं मुख्य मंत्री पद पर आसीन करने का प्रयास रहा | विश्वामित्र ने अपने कुनवे सहित (अन्य ब्राह्मणो) भारतीय जनता पार्टी के साथ यज्ञ प्रारम्भ किया और हरक सिंह रावत जी मुख्य्मंत्री पद की चाहत लिए स्वर्ग की और उठने लगे किन्तु देवताओं स्पीकर,राज्यपाल ,हाई कोर्ट आदि ,ने उन्हें ऊपर उठने से रोक दिया | …………………………………………विश्वामित्र के मन्त्रों से वे ऊपर उठ चुके हैं किन्तु चतुर इन्द्र ने उन्हें अपने प्रभाव से उल्टा वापिस कर दिया | लटके त्रिशंकु का क्या हुआ | भविष्य क्या होगा ……? इसको जानने के लिए त्रिशंकु की कथा नीचे वर्णित है …………..

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त्रिशंकु नामक महान राजा था ,जिसको सशरीर स्वर्ग जाने की महत्वकांक्षा पैदा हुई | वे गुरु बशिष्ट के पास अपनी कामना लेकर गए | उनके मना करने पर वे उनके तपश्वी पुत्रों के पास गए किन्तु उन्होंने भी यह कहकर मना कर दिया की जिस काम को पिता ने मना कर दिया है उसको करना वे अपने पिता का अपमान समझते हैं | यह सुन कर अहंकारी त्रिशंकु ने गाली गलोज सुरु कर दी | जिससे क्रोधित होकर बशिष्ट पुत्रों ने त्रिशंकु को चांडाल होने का श्राप   दे दिया | ……श्राप के कारण त्रिशंकु चाण्डाल बन गये तथा उनके मन्त्री तथा दरबारी उनका साथ छोड़कर चले गये। फिर भी उन्होंने सशरीर स्वर्ग जाने की इच्छा का परित्याग नहीं किया। वे विश्वामित्र के पास जाकर बोले अपनी इच्छा को पूर्ण करने का अनुरोध किया। ऋषि बशिष्ट विश्वामित्र के शत्रु थे कामधेनु गाय के कारण उनकी शत्रुता थी | अतः विश्वामित्र ने कहा तुम मेरी शरण में आये हो। मैं तुम्हारी इच्छा अवश्य पूर्ण करूँगा। इतना कहकर विश्वामित्र ने अपने उन चारों पुत्रों को बुलाया जो दक्षिण प्रान्त में अपनी पत्नी के साथ तपस्या करते हुये उन्हें प्राप्त हुये थे और उनसे यज्ञ की सामग्री एकत्रित करने के लिये कहा। फिर उन्होंने अपने शिष्यों को बुलाकर आज्ञा दी कि वशिष्ठ के पुत्रों सहित वन में रहने वाले सब ऋषि-मुनियों को यज्ञ में सम्मिलित होने के लिये निमन्त्रण दे आओ।सभी ऋषि-मुनियों ने उनके निमन्त्रण को स्वीकार कर लिया किन्तु वशिष्ठ जी के पुत्रों ने यह कहकर उस निमन्त्रण को अस्वीकार कर दिया कि जिस यज्ञ में यजमान चाण्डाल और पुरोहित क्षत्रिय हो उस यज्ञ का भाग हम स्वीकार नहीं कर सकते। यह सुनकर विश्वामित्र जी ने क्रुद्ध होकर उन्हें कालपाश में बँध कर यमलोक जाने और सात सौ वर्षों तक चाण्डाल योनि में विचरण करने का श्राप   दे दिया और यज्ञ की तैयारी में लग गये।……………….………………..विश्वामित्र के शाप से वशिष्ठ जी के पुत्र यमलोक चले गये। वशिष्ठ जी के पुत्रों के परिणाम से भयभीत सभी ऋषि मुनियों ने यज्ञ में विश्वामित्र का साथ दिया। यज्ञ की समाप्ति पर विश्वामित्र ने सब देवताओं को नाम ले लेकर अपने यज्ञ भाग ग्रहण करने के लिये आह्वान किया किन्तु कोई भी देवता अपना भाग लेने नहीं आया। इस पर क्रुद्ध होकर विश्वामित्र ने अर्ध्य हाथ में लेकर कहा कि हे त्रिशंकु! मैं तुझे अपनी तपस्या के बल से स्वर्ग भेजता हूँ। इतना कह कर विश्वामित्र ने मन्त्र पढ़ते हुये आकाश में जल छिड़का और राजा त्रिशंकु शरीर सहित आकाश में चढ़ते हुये स्वर्ग जा पहुँचे। त्रिशंकु को स्वर्ग में आया देख इन्द्र ने क्रोध से कहा कि रे मूर्ख! तुझे तेरे गुरु ने शाप दिया है इसलिये तू स्वर्ग में रहने योग्य नहीं है। इन्द्र के ऐसा कहते ही त्रिशंकु सिर के बल पृथ्वी पर गिरने लगे और विश्वामित्र से अपनी रक्षा की प्रार्थना करने लगे। विश्वामित्र ने उन्हें वहीं ठहरने का आदेश दिया और वे अधर में ही सिर के बल लटक गये। त्रिशंकु की पीड़ा की कल्पना करके विश्वामित्र ने उसी स्थान पर अपनी तपस्या के बल से स्वर्ग की सृष्टि कर दी और नये तारे तथा दक्षिण दिशा में सप्तर्षि मण्डल बना दिया। इसके बाद उन्होंने नये इन्द्र की सृष्टि करने का विचार किया जिससे इन्द्र सहित सभी देवता भयभीत होकर विश्वामित्र से अनुनय विनय करने लगे। वे बोले कि हमने त्रिशंकु को केवल इसलिये लौटा दिया था कि वे गुरु के शाप के कारण स्वर्ग में नहीं रह सकते थे।

इन्द्र की बात सुन कर विश्वामित्र जी बोले कि मैंने इसे स्वर्ग भेजने का वचन दिया है इसलिये मेरे द्वारा बनाया गया यह स्वर्ग मण्डल हमेशा रहेगा और त्रिशंकु सदा इस नक्षत्र मण्डल में अमर होकर राज्य करेगा। इससे सन्तुष्ट होकर इन्द्रादि देवता अपने अपने स्थानों को वापस चले गये।………………………………………….ओम शांति शांति शांति

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