मुस्लमान कर्मयोगी होते हैं ,उन्हें योग की आवश्यता नहीं
PAPI HARISHCHANDRA
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मुस्लमान गीता के मानकों के अनुसार कर्म योगी होते हैं | पैदा होते ही वे अपने स्वाभाविक सहज कर्म की तरफ आकर्षित रहते हैं | वे चाहे जिस काम को करते हों ,बचपन से ही उसमें लीं हो ख़ुदा की इबादत करते रहते हैं | उनकी हर कार्य शैली एक योग ही होती है | इस्लाम का ज्ञान ही उनके लिए ज्ञान होता है अन्य सब अज्ञान..| किशोर अवस्था आते आते ही वे अपने कार्य मैं सक्षमता लाते कर्म योगी बन जाते हैं | उनकी गणना कुशल कारीगर के रूप मैं होने लगती है | उनके कार्य पर कमी निकलना कठिन होता है | इबादत और अपने स्वाभाविक कर्म मैं ही वे सारी योग की क्रियाएँ करते रहते हैं | नमाज भी एक सम्पूर्ण योागआसन ध्यान सहित इबादत है | …………………………………………………………………..भक्ति या इबादत किस रूप मैं भगवन को प्रिय होती है……………………………………… सगुण रूप मैं साकार परमेश्वर के भजन ध्यान करने वाले (हिन्दू सनातन धर्मी ) ………………………………………………………………….या दूसरे जो केवल निराकार ब्रह्म को ही अतिश्रेष्ठ भाव से भजते (इबादत करते ) हैं | ( मुस्लमान ,सिख ईसाई ,जैन बौद्ध आदि ) ……………………………………………………………..इन दोनों प्रकार के उपासकों मैं अति उत्तम कौन योग वेत्ता है | ……………………………………………………………..भगवन कृष्ण के अनुसार जो पुरुष ....मन बुद्धि से पर ,सर्वव्यापी ,सदा एकरस रहने वाले ,नित्य ,अचल निराकार ,अविनाशी ,सच्चिदानन्दघन ब्रह्म को निरंतर एकीभाव से ध्यान करते भजते हैं (इबादत करते हैं ) वे मुझको ही प्राप्त होते हैं | उन आसक्त चित्त वाले पुरुषों के साधन मैं परिश्रम विशेष है | क्योंकि देहाभिमानियों के द्वारा अव्यक्तविषयक गति दुःखपूर्वक प्राप्त होती है | ……………………….मुसलमानों ने इसी परिश्रम विशेषक निराकार ब्रह्म की इबादत ही स्वीकार की | परिश्रम से शरीर को जितना थका दिया जायेगा खुदा की सच्ची इबादत वही होगी | ………………………………………………………………निठल्ले बैठे रहकर इबादत उनके लिए हराम होती है | .योग निठल्ले बैठे व्यापारियों या बुद्धिजीवियों के लिए ही सार्थक होगा | जिन्हें हाथ पैर हिलाने को भी समय नहीं मिलता | .धन का अम्बार लगा है | योगालयों मैं जाकर मोटी मोटी फीस दे सकते हों | ………………………………………………………………..कर्म सन्यास मुसलमानों के लिए हराम होता है | क्यों की वे जानते हैं की मन ,इन्द्रिय और शरीर द्वारा होने वाले सम्पूर्ण कर्मों मैं कर्तापन का त्याग होना कठिन है | …………………किन्तु ……….भगवत स्वरुप (खुदा ) .को मनन करने वाले कर्मयोगी परब्रह्म परमात्मा( खुदा ) को शीघ्र पा जाते हैं | …….. ………………………………………………………भगवन कृष्ण कहते हैं …कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना ही श्रेष्ठ है तथा कर्म न करने से तेरा निर्वाह भी सिद्ध नहीं होता .| ३\८ ………………………………………………………..जो मूढ़बुद्धि मनुष्य समस्त इन्द्रियों को हठ पूर्वक ऊपर से रोककर मन से उन इन्द्रियों के विषयों का चिंतन करता रहता है ,वह मिथ्याचारी अर्थात दम्भी कहा जाता है| ३\६ ………………………………………………………………………....वह योग किस काम का जिसमें शुद्ध खान पान न हो ,शुद्ध आचरण न हो ,शुद्ध हाव भाव न हों केवल व्यवसायिक रूप से इन्द्रियों के सुखों के लिए किया जाये ..| योग का उद्देश्य भोग नहीं ,योग परमात्मा का शाक्षात्कार ही है | यदि यह भाव नहीं तो आडम्बर है | ………………………………………………………………………अच्छी प्रकार आचरण किये हुए दूसरे के धर्म से गुण रहित भी अपना धर्म श्रेष्ट है ,क्योंकि स्वाभाव से नियत किये हुए स्वधर्म रूप कर्म को करता हुआ मनुष्य पाप को प्राप्त नहीं होता | अपने धर्म मैं मरना भी कल्याण कारक है और दूसरे का धर्म भय देने वाला है | १८\४७ ………………………………………………………....मुस्लमान इसी लिए अपने धर्म के लिए मरने मारने के भाव लिए भगवन कृष्ण की वाणी को सार्थकता प्रदान करता कर्म करता है | ……………………………………………………………..भगवन ने कहा है तू पूर्वजों द्वारा सदा से किये जाने वाले कर्मों को ही कर | ४\१५ ……………....शायद इसी लिए मुस्लमान अपने पूर्वजों द्वारा निर्धारित कर्मों का त्याग नहीं करता है | …………………………………………………………………………….लगता है गीता कुरान के रचयिता सब एक ही हैं | कोई योग अपने कर्मों से ही कर लेता है कोई भक्ति ज्ञान से करता है | कोई निराकार को भजते तपता है तो कोई ज्ञान यज्ञ से साकार की भक्ति आनंद मैं डूब कर आनंदित होता है | चतुर तो वह व्यवसायी चाणक्य ही होता है जो इनमें भी व्यवसाय राजनीती से खेलकर आनंद भोग करता है | ……………………………………………………………………….ओम शांति शांति शांति
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