राष्ट्रीय धर्मग्रन्थ ”गीता”का राजस धर्म और तामस धर्म ही अपनाया गया
PAPI HARISHCHANDRA
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…...कृपया बड़े आकार मैं देखने के लिए क्लिक करें ……………………………………………………...श्री वेद व्यास जी ने महाभारत मैं गीता का वर्णन करने के उपरांत कहा है कि……………………………………………………………………………...गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्रविस्तरैः | या स्वयं पद्मनाभस्य मुखपद्माद्विनिः सुता ||……..(पद्मनाभ भगवन विष्णु के मुखारविंद से निकली श्री गीता को भली भांति पढ़कर अर्थ और भावसहित अंतःकरण मैं धारण कर लेना मुख्य कर्तव्य है ).………………………………..क्या है गीता का भाव …….? …अध्यात्म यानि आत्मा परमात्मा जन्म मरण का सिद्धांत | जीव का भौतिक शरीर ही मरता है आत्मा नहीं मरती | आत्मा मरने के बाद परमात्मा मैं अपने कर्मफलों के अनुसार लीं हो जाती है | कर्म अच्छे हैं तो मिलन सहज हो जायेगा ,अन्यथा बुरे कर्मों के कारण विभिन्न योनियों मैं विचरते कर्म फल भोगना होगा | ………………………………………………………………………………….कर्म अच्छे कैसे हों उसकी परिभाषा …….. त्याग को सबसे उत्तम माना गया | संसार मैं जो कुछ भी दृश्य है सब नाशवान है | अतः आत्मा के उद्धार के लिए त्याग करो .| कर्म फल का त्याग करो ………..और ईश्वर भक्ति मैं डूब जाओ | ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,क्या गीता केवल सन्यासियों के लिए ही है ..? गीता पड़ो सब कुछ त्यागो और सन्यासी हो जाओ | साधारण जन भी विकास के लिए गीता के उपदेशों को आत्मसात करते विकास करने लगा है | अब सन्यासी के लिए भिक्षाम देही कहते दर दर नहीं जाना पड़ता | रूप ही तो सन्यासी का धारण करना है | आत्मसात तो राजस और तामस रूप को करना है | फिर देखो सुख वैभव कैसे बरसता है | सन्यासी रूप मैं राजमहल मैं निवास होता जाता है | एक युग था जब व्यास जी के लिए श्रोता कम मिलते थे | मुंह से वाणी भी कितनी जोर से निकालते | अब आधुनिक टेचनोलॉजी ने विश्व व्यापी श्रोता बना दिए | .टी वी इंटरनेट सभी कुछ महानता के कारक बन गए हैं | आशाराम ,रामपाल , रामदेव , साईं बाबा ,जैसे असख्य सन्यासी राजस और तामस स्वरुप से संगम करते दीं दुखियों का उद्धार कर रहे हैं | ..क्या है सन्यास ….? क्या भगवा वस्त्र धारण ही सन्यास है ..? या दीक्षा ले लेना | ……..………….”.माया से उत्पन्न हुए सम्पूर्ण गुण ही गुणों मैं बरतते हैं ,ऐसा समझकर तथा मन इन्द्रिय और शरीर द्वारा होने वाली सम्पूर्ण क्रियाओं मैं कर्तापन के अभिमान से रहित होकर सर्वव्यापी सच्चिदानंद परमात्मा मैं एकीभाव से स्तिथ रहने का नाम सन्यास कहा गया है ” …………………. ………………………………………गीता मैं तीन तरह की प्रकृति के मनुष्य माने गए हैं | …….१)सात्विक ..२) .राजस और तामसिक | ………………………………………………कलियुग मैं सात्विक प्रकृति के लोग हिमालय की कन्दराओं मैं चले गए हैं | केवल राजस और तामसी ही रह गए हैं | क्यों की सात्विक स्वरुप मैं रहना भौतिक युग मैं कठिन हो गया है | अतः राजस और तामस स्वरुप को ही अपनाना मजबूरी हो गयी है | ..सुगमता से अपनाते लोक तो सूधार ही लेते हैं | परलोक के लिए गंगा स्नान कर लेंगे | …………………………………………….योग को पृथक पृथक माना है किन्तु कलियुगी विदुषियों ने योग मैं भी एक और योग कर दिया | यानि रूप सात्विक रहन सहन राजसी ,वाणी सात्विक किन्तु कर्म राजसी , तामसी …………………………………………………………….अध्यात्म और भौतिक विचारधारा दोनों का संगम यानि योग कर दिया है | ….………………………………..कलियुग के इस भौतिकतावादी विकास मय संसार मैं सात्विक तो कोई हो ही नहीं सकता | सिर्फ और सिर्फ विकास ही धर्म हो गया है | विकासवान व्यक्ति केवल राजस ,या तामस ही हो सकता है || | ………………………………………………क्या गीता के अनुसार कोई दैवी सम्पदा युक्त सात्विक हो सकता है या अपने को आत्मसात कर सकता है ….?
सात्विक व्यक्ति दैवी सम्पदा प्राप्त होता है जिसमें भय का सदा अभाव , अंतःकरण की सर्वथा निर्मलता ,ध्यान योग मैं द्रढ स्तिथि ,इन्द्रियों का दमन ,भगवन देवता और गुरुजनों की पूजा , भगवन के नाम और गुणों का कीर्तन ,स्वधर्म पालन के लिए कष्ट सहन ,,शरीर और इन्द्रियों सहित अन्तः करण की सरलता होती है | वेदशास्त्रों का पठन पाठन युक्त होता है सात्विक व्यक्ति …| …………………….मन वाणी और शरीर से किसी प्रकार भी किसी को कष्ट न देना ,सत्य और प्रिय भाषण ,अपना अपकार करने वाले पर भी क्रोध न करना ,कर्मों मैं कर्तापन के अभिमान का त्याग ,चित्त की चंचलता का अभाव , किसी की भी निंदा न करना ,सब भूत प्राणियों मैं दया , इन्द्रियों का विषयों के साथ संयोग होने पर भी उनमें आसक्ति न होना ,कोमलता ,लोक और शास्त्र के विरुद्ध आचरण मैं लज्जा ,और व्यर्थ चेष्टाओं का अभाव ,तेज क्षमा ,धैर्य ,बाहर की शुद्धी और किसी मैं भी शत्रु भाव न होना ,अपने मैं पूज्यता के अभिमान का अभाव ……आदि आदि दैवी सम्पदा युक्त सात्विक गुण होते हैं | ……..क्या ऐसा असाधारण व्यक्ति इस संसार मैं हो सकता है ……………………? इसीलिए भगवन कृष्ण ने ऐसे विलक्षण व्यक्ति को दैवी सम्पदा युक्त कहा | .………………………………………….क्या होता है राजस धर्म .…? …..जिस को अपना कर जीवन आकर्षक लगता है | चाहे सन्यासी हो ,या गृहस्थ सभी राजस धर्म मैं ही जीना चाहते हैं | ………………………………………….. भौतिकता वादी राजसी स्वाभाव के होते हैं जो यक्ष ,राक्षशों को पूजते हैं | जिन्हें कड़वे ,खट्टे ,लवणयुक्त ,बहुत गरम ,तीखे ,,रूखे ,दाहकारक ,और दुःख ,चिंता ,और रोगों को उत्पन्न करने वाले भोजन प्रिय होते हैं | उनके सब कर्म दम्भाचरण के लिए अथवा फल को दृष्टि मैं रख कर होते हैं | उनके कर्म तप सत्कार ,मान ,और पूजा के लिए तथा अन्य किसी स्वार्थ के लिए पाखंड से किया जाता है जो अनिश्चित फल वाला क्षणिक ही होता है | इनका दान क्लेश पूर्वक तथा प्रत्युपकार के प्रयोजन से ,फल को दृष्टि मैं रखकर फिर दिया जाता है | ज्योतिष के अनुसार कुंडली मैं राज योग होना इस धर्म का कारक होता है | …………………………………………………………वहीँ तामसी धर्म के आराध्य प्रेत और भूत गण ही होते हैं | ये लोग शास्त्र विधि से हीन ,अन्नदान से रहित ,विना मन्त्रों के ,विना दक्षिणा के ,और विना श्रद्धा के यज्ञ कार्य करते हैं | इनका तप मूढ़ता पूर्वक हठ से ,मन बानी ,और शरीर की पीड़ा के सहित अथवा दूसरे के अनिष्ट करने के लिए होता है | तामस का दान विना सत्कार के ,तिरस्कार पूर्वक अयोग्य देश काल मैं और कुपात्र को दिया जाता है | यह विना युक्ति वाले , तात्विक अर्थ से रहित ,और तुच्छ ज्ञान वाले होते हैं | इनके कर्म परिणाम ,हानि ,हिंसा ,और सामर्थ्य को सोचे बिना होते हैं | यह शिक्षा से रहित ,घमंडी ,धूर्त ,दूसरों की जीविका का नाश करने वाले ,शोक करने वाले ,आलसी ,अपने कार्य को फिर कर लूँगा स्वभाव वाले होते हैं | ………………………………...यही कारण है की गीता के ज्ञान का निचोड़ करके राजसीयों ने तम्सियों ने अपना लिया | रूप कोई भी धर लो राजसी धर्म ही सर्व प्रिय होता है | भगवन श्रीकृष्ण भी सारी जिंदगी राजस धर्म निभाते रहे | अर्जुन को भी राजस धर्म मैं अग्रसर करना उनका मुख्य उद्देश्य रहा | अर्जुन तो सब कुछ त्यागकर ,युद्ध नहीं करूंगा कहकर हथियार पृथिवी पर रख चुके थे | ………………………………………………ओम शांति शांति शांति
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