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भगवान् ने मिट्टी उठाई ….।
सोचा कुछ बनाये सबसे करिश्माई,
मिट्टी उठा कर हो गया शुरू,
पर समझ न आया कैसे शुरुआत करूं?
बनाना चाहता था वह कुछ ऐसा,
जो हो कुछ उसके खुद के जैसा।।
सोचा उसने मन ही मन,
नहीं हो सकता हर जगह वह स्वयं ,
तो उसने गढ़ दिया एक ऐसा जीव,
जो थी निर्मल, सुन्दर और इस सृष्टि की नीव
फिर सोचा क्या हो नाम?
जिसे सुनकर,रूह को भी आ जाये आराम।
नाम रखा ‘ मां’
‘मांं’ जिसे बोलते ही उनकी खुद की आत्मा झनझना उठी,
कायनात खिल गयी और आंंखें डबडबा उठींं।
फिर किसी ने पूछा , कौन है मांं, क्या है मांं ?
भगवान मुस्कुराए और बोले….
सारे दुःखों का किनारा है मांं।
चिलचिलाती धूप में छांंव जैसा सहारा है मांं….
हर पीड़ा, हर तकलीफ मिटा दे मांं…
अपने आंंचल से सारी थकान हटा दे मांं….
हमारे दर्द पर खुद, कराह जाये मांं….
दवा का स्वाद पहले खुद चखे, फिर हमें पिलाये मांं।
हमारे गंदे मुंंह को भी चूम जाये मांं…
हर बात पे ले लाखों बालाएं मांं,
गिरने के पहले संभाले मांं ….
हमारी हर ख़्वाइश खुद में पाले मांं,
खुद का हर अरमान छुपा ले मांं,
मुझसे भी पहले सुन ले हर दुहाई मांं।
इस सर्द दुनिया में गर्म रजाई मांं….
हर बीमारीं की अचूक दवाई मांं…..
मन में भी पुकारो तो दौड़ी चली आएं मांं,
लाख छुपा लो राज़, फिर भी देखते ही समझ जाएं मांं
हर खट्टे मीठे रिश्तों में होती रसमलाई मांं,
जिसे रच कर खुद भगवान् भी बोले उठे,
इस कलयुग में जन्नत की रूहाई मांं।
नोट : यह लेखक के निजी विचार हैं और इसके लिए वह स्वयं उत्तरदायी हैं। इससे संस्थान का कोइ लेना-देना नहीं है।
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