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तीन मध्यम वर्गीय 16-17 वर्षीय बालाएं आधुनिक पश्चिमी पोशाक, एक हाथ में स्टाइलिस्ट बैग्स और दूसरे में ब्लैकबेरी. इस काले बेरी ने बाकी सभी मोबाइल को छुट्टी पर भेज दिया है आजकल. स्थान- महानगर की मेट्रो. शायद किसी कोचिंग क्लास में जा रहीं थीं या फिर आ रहीं थीं. पर उनकी बातों में कहीं भी लेश मात्र भी पढाई या उससे संबंधित किसी भी विषय का कोई सूत्र नहीं था. सीट पर बैठी एक बाला ने ही बात छेड़ी- ‘ए सुन- हूम आर यू गोइंग आउट विथ? नाओ अ डेज ? जबाब दूसरी वाली ने दिया- ‘अरे इसका मत पूछ यार.. शी इज सो लकी. गोट अ हैंडसम फैलो दिस टाइम. पहली- ‘अच्छा!’.. पर तेरा वो पहले वाला भी तो अच्छा था यार. रिच भी था. अब जबाब तीसरी ने दिया- ‘हाँ अच्छा था’. पर अजीब था यार. उसे कहीं चलने को कहो तो मना कर देता था. फिर मैं किसी और के साथ डिस्क चली जाती थी तो वहां पहुँच जाता है. देयर वाज नो प्रायवेसी एट ऑल. मैं तो नहीं रह सकती ऐसे. दूसरी – ‘मेरा वाला तो मस्त है’. पहली- ‘हाँ यार समझ में नहीं आता ये लोग इतने पजेसिव क्यों हो जाते हैं? कौन सा इनसे शादी करनी है यार. आस-पास इतनी भीड़ में कोई उनकी बात सुन भी सकता है इससे बेखबर बिंदास वे तीनो अपनी चर्चा में मशगूल थीं.
आप सोच रहे होंगे कि किसी नाटक का किस्सा आपको सुना रही हूँ. मुझे भी एक पल को यही लगा था कि शायद कोई नाटक या सपना देख रही हूँ. यहाँ वहां देखा भी सभी अपनी अपनी बातों में मशगूल थे. और मेट्रो की आवाज़ में ज्यादा दूर तक तो बात सुनाई भी नही दे सकती थी. तभी मेरी नजर मेरी बराबर की सीट पर बैठी महिला पर पड़ी वो मंद मंद मुस्करा रही थी अब वह उन लड़कियों की बात पर मुस्करा रही थी या मेरे चेहरे के हाव भाव पर ये मुझे नहीं पता. पर मुझे एहसास हुआ कि मैं कोई कल्पना नहीं कर रही ये वार्ता साक्षात मेरे सामने चल रही है. और मैं सोच रही थी सच में समय बदल गया है. और ये लडकियां व्यावहारिक हैं. क्यों करें शादी ? आखिर क्या मिलेगा शादी करके? एक जिम्मेदारी भरा परिवार, कैरियर की श्रधांजलि, और एक पज़ेसिव पति. फिर जरुरत ही क्या इस झंझट की. अपना कमाएंगे, खायेंगे , और मस्त जिन्दगी जियेंगे ,कोई रोकने टोकने वाला नहीं. आखिर क्यों वे अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी मारें. शादी के बाद की जिन्दगी उनके वर्तमान स्टाइल से तो मैच करने से रही, फिर क्यों बिना वजह ओखली में अपना सर देना.
यही मानसिकता हो गई है आज हमारे आधुनिक महानगरीय समाज की. आर्थिक जरूरतों की पूर्ति के लिए आज स्त्री और पुरुष दोनों का धन अर्जित करना जरुरी है और इन परिस्थितियों में शादी के बाद घर की जिम्मेदारी कौन संभाले, ये सवाल उठ खड़ा होता है. कुछ समझदार लोग तो मिलजुल कर बाँट भी लेते हैं पर फिर समस्या आती है बच्चों की. अपनी-अपनी व्यस्तताओं के चलते बच्चों की जिम्मेदारी उठाने की हिम्मत उनकी नहीं होती. जहां रोज की भागमभाग जिन्दगी में उनके पास आपस में दो घड़ी बिताने का वक़्त नहीं वहां बच्चे को कौन देखेगा. तो वह बच्चे की जरुरत को ही नकार देते हैं. हर रिश्ता किसी ना किसी जरुरत पर ही टिका होता है यह एक सामाजिक और मानसिक सत्य है. फिर जहाँ ना आर्थिक निर्भरता है किसी पर , ना भावात्मक और ना ही सामाजिक या पारिवारिक तो फिर किस आधार पर कोई रिश्ता जीवित रहे. और यही वजह है,कि वर्तमान परिवेश में शादियाँ टूटते वक़्त ही नहीं लगता. आखिर क्यों कोई बिना किसी बजह के एक दूसरे से समझौता करें. मैं ही क्यों? तू क्यों नहीं? की भावना रिश्ते की शुरुआत में ही हावी हो जाती है और नतीजा – या तो आज के युवा शादी ही नहीं करना चाहते , और जो कर लेते हैं उन्हें उसे तोड़ने में वक़्त नहीं लगता. तो क्या आपस के स्वार्थ कि बिनाह पर धीरे धीरे समाप्त हो जाएगी यह विवाह की व्यवस्था?
अब चाहें तो हम इसे पश्चिमी समाज का असर कह सकते हैं. परन्तु मुझे नहीं लगता कि पश्चिमी समाज में कभी भी या आज तक भी विवाह या फिर बच्चों की पैदाइश को नकारा गया हो. हाँ रिश्तों को लेकर उन्मुक्तता जरुर है परन्तु रिश्तों की महत्ता भी कायम है. बेशक लिव इन रिलेशन शिप है परन्तु बच्चों की जिम्मेदारी से मुँह नहीं मोड़ा जाता. यूँ ही अपनी हर समस्या का ठीकरा हम पश्चिमी सभ्यता के सर पर नहीं फोड़ सकते. जैसे पश्चिमी समाज की तर्ज पर हम भी नारी वाद का झंडा लेकर खड़े हो गए. जबकि उनकी और हमारी नारी वादी समस्याओं में कभी कोई ताल मेल था ही नहीं. उनकी समस्याएं अलग थीं और हमारी अलग.
देखा जाय तो स्त्रियों के सम्मान को लेकर हमारे भारतीय समाज में कभी कोई दो राय नहीं रहीं. आदि काल से ही जब से मानव ने समाज की व्यवस्था की, सुविधा के अनुसार व्यवस्था को दो भागों में बांट लिया गया – पुरुष के हिस्से बाहर का काम आया और स्त्री के हिस्से घरेलू. कहीं, किसी के काम को लेकर कोई मन मुटाव नहीं था. किसी का काम कमतर या नीचा नहीं माना जाता था. दोनों ही पक्ष सम्मानीय थे. फिर हमने आर्थिक विकास करने शुरू किये और धन की लोलुपता बढ़ने लगी और समस्या यहीं से शुरू हुई. जब हर सफलता और योग्यता का मापदंड उसके आर्थिक अर्जन से होने लगा. घर में काम करने वाली स्त्री के योगदान को नकारा जाने लगा उसका अपमान किया जाने लगा. और धीरे धीरे स्त्री के स्वाभिमान ने आग पकड़ी और उसने भी आर्थिक निर्भरता की बिनाह पर अपनी योग्यता को सिद्ध करने की ठान ली. और फिर समस्या उत्पन्न हुई तालमेल की.
अंग्रेजों के साथ आई अंग्रेजी नारीवाद की आंधी ने भारतीय स्त्रियों को भी प्रभावित किया और शुरू हुआ आधुनिकता का नया दौर. जिसमें कहीं भी किसी भी रिश्ते के लिए जगह नहीं थी. जरुरी था तो सिर्फ अर्थ अर्जन. स्त्री बाहर निकली तो उसे मिला नया आयाम , सामाजिक सम्मान. और परिणाम स्वरुप घरेलू स्त्रियों को अयोग्य करार दे दिया गया. घरेलू स्त्रियों में अपने काम और शिक्षा को लेकर हीन भावना घर करने लगी. और आज यह हालात है कि “हाउस वाइफ” शब्द “गुड फॉर नथिंग” जैसा समझा जाता है. आर्थिक रूप से संबल स्त्री आज हर तरह से सक्षम है. अत: वह किसी भी तरह का शोषण या समझौता बर्दाश्त करने को तैयार नहीं. उसे हर हाल में हर स्थान पर पुरुषों के बराबर का वर्चस्व चाहिए जिसके वह काबिल है और वह लेकर भी रहती है. पर इन सब बदलाव के एवज में हमें मिल रहे हैं बिखरे परिवार, असंवेदनशील रिश्ते,मर्यादाओं का हनन.
एक समय था जब हम सभ्य नहीं थे, सामाजिक नहीं थे. किसी तरह की कोई परिवार नाम की व्यवस्था हमारे समाज में नहीं थी. हम जानवरों की तरह जिससे चाहे सम्बन्ध बनाते थे और अपनी इच्छाओं और जरुरत की पूर्ति के बाद भूल जाते थे. क्या हम फिर जा रहे हैं उसी पाषाण युग की ओर. ?? या फिर यह परिवेश है बदलते वक़्त की मांग और व्यावहारिकता. ???. इसका फैसला तो वक्त ही करेगा.
साभार: शिखा वर्शने
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