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एक अनबूझा सत्य…….

कड़वा सच ......
कड़वा सच ......
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दूर क्षितिज में, एक अनबुझा सत्य,

छिपता जा रहा है !

रश्मियों से निकलता, धुंधला,

परन्तु जाना पहचाना सा चेहरा !

अश्थी पंजर समेटे,

शायद समाधी से उठकर,

पानी देने आया हो,

बोई हुई आदर्श की फसलों को !

बढ़ रहा है, निहारता हुआ,

करुणामयी उरों, धमाकों, चीत्कारों,

और शोलों के स्वरों को !

चकित है देखकर, आदर्शों के बीज,

भ्रष्टाचार में अंकुरित होते हुए !

और चकित है- हिंसा, छल, कपट के पानी से,

अपनी संतानों को इन्हें सिंचित करते हुए !

क्या ये पोधे ऐसे पनप पाएंगे ?

एक दिन विनाश के वृक्ष बन जायेंगे !

यही सोच उसने पानी देना चाहा,

पर नहीं दे सका !

क्योंकि उसे एक ने झकझोर दिया !

जिससे वह पुनः अपने अश्थी-पंजर,

समेटने में व्यस्त हो गया !

शायद मैं उसे उसकी चाल से पहचानता हूँ…

परन्तु आज उसमे तेजी नहीं !

चाल में शिथिलता, आँखों में करुना,

ह्रदय में भय समाया था !

कहीं कोई पुनः अश्थी पंजर न विखेर दे !

इसलिए लुकते-छिपते, अतीत की तुलना-

वर्तमान से करता जा रहा है !

जैसा छोड़कर गया था घर को,

उससे कहीं ज्यादा अस्त-व्यस्त पा रहा है !

वही लाठी,

वही चश्मा,

वही गमछा,

वही धोती !

अब समझा की वह कौन है ?

एक जगह रुका, कान बंद किये, चल दिया !

फिर चला, रुका, आँख बंद की चल दिया !

आगे चला, फिर रुका, मुंह पर ऊँगली रखी चल दिया !

क्योंकि ये स्थान उसके आदर्शों के विपरीत थे !

आदर्शों को शमशान ले जाने की तैयारी हो रही थी !

बेचारी कई भारतीय नारियां,

अपनी  कलंकित कोख पर रो रहीं थी !

परन्तु वह बेचारा क्या करता ?

वह तो सिर्फ एक दिन के लिए,

स्वर्ग से धरा पर आराम करने आया था !

पर उस बदनसीव के जीवन में आराम कहाँ ?

पर अब क्या ?

उसके अश्थी-पंजर,

हजारों अवरोधों को पार करते हुए,

क्षितिज में छिपते जा रहे थे !

वह और कोई नहीं-

बेचारे बापू,

रोते हुए,

राजघाट की तरफ जा रहे थे.

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