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दूर क्षितिज में, एक अनबुझा सत्य,
छिपता जा रहा है !
रश्मियों से निकलता, धुंधला,
परन्तु जाना पहचाना सा चेहरा !
अश्थी पंजर समेटे,
शायद समाधी से उठकर,
पानी देने आया हो,
बोई हुई आदर्श की फसलों को !
बढ़ रहा है, निहारता हुआ,
करुणामयी उरों, धमाकों, चीत्कारों,
और शोलों के स्वरों को !
चकित है देखकर, आदर्शों के बीज,
भ्रष्टाचार में अंकुरित होते हुए !
और चकित है- हिंसा, छल, कपट के पानी से,
अपनी संतानों को इन्हें सिंचित करते हुए !
क्या ये पोधे ऐसे पनप पाएंगे ?
एक दिन विनाश के वृक्ष बन जायेंगे !
यही सोच उसने पानी देना चाहा,
पर नहीं दे सका !
क्योंकि उसे एक ने झकझोर दिया !
जिससे वह पुनः अपने अश्थी-पंजर,
समेटने में व्यस्त हो गया !
शायद मैं उसे उसकी चाल से पहचानता हूँ…
परन्तु आज उसमे तेजी नहीं !
चाल में शिथिलता, आँखों में करुना,
ह्रदय में भय समाया था !
कहीं कोई पुनः अश्थी पंजर न विखेर दे !
इसलिए लुकते-छिपते, अतीत की तुलना-
वर्तमान से करता जा रहा है !
जैसा छोड़कर गया था घर को,
उससे कहीं ज्यादा अस्त-व्यस्त पा रहा है !
वही लाठी,
वही चश्मा,
वही गमछा,
वही धोती !
अब समझा की वह कौन है ?
एक जगह रुका, कान बंद किये, चल दिया !
फिर चला, रुका, आँख बंद की चल दिया !
आगे चला, फिर रुका, मुंह पर ऊँगली रखी चल दिया !
क्योंकि ये स्थान उसके आदर्शों के विपरीत थे !
आदर्शों को शमशान ले जाने की तैयारी हो रही थी !
बेचारी कई भारतीय नारियां,
अपनी कलंकित कोख पर रो रहीं थी !
परन्तु वह बेचारा क्या करता ?
वह तो सिर्फ एक दिन के लिए,
स्वर्ग से धरा पर आराम करने आया था !
पर उस बदनसीव के जीवन में आराम कहाँ ?
पर अब क्या ?
उसके अश्थी-पंजर,
हजारों अवरोधों को पार करते हुए,
क्षितिज में छिपते जा रहे थे !
वह और कोई नहीं-
बेचारे बापू,
रोते हुए,
राजघाट की तरफ जा रहे थे.
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