सम्मानित मित्रो, देश में लगातार बढ रही बलात्कार-हिंसा-यौन शोषण जैसी गंभीर एवं घिनौनी घटनाओं से व्यथित होकर, ये रचना इस आशय के साथ पोस्ट की जा रही है कि समाज में फलफूल रहे हवश के दानव पर कैसे अंकुश लगाया जाये. यह एक छोटा सा प्रयास है, लोगों में जाग्रति पैदा करने का. यदि समय रहते इन कु-कृत्यों पर अंकुश नहीं लगाया गया तो नारी- जिसके कई रूप हैं उसका अस्तित्व खतरे में आ जायेगा. नारी के अस्तित्व का खतरे में आना समझो पूरी सृष्टी का खतरे में आना है. क्यूंकि स्त्री और पुरुष पक्षी के दो पंख है, उडान के लिए दोनों ही अनिवार्य है. जिस प्रकार पक्षी एक पंख से उड़ान नहीं भर सकता उसी प्रकार सृष्टी भी अपने एक कारक के अभाव में संतुलित नहीं रह सकती. कहा जाता है कि जब-जब धरती पर पाप- अधर्म- अन्याय- अत्याचार बढता है तो भगवान अवतार लेते है. भगवान कब अवतार लेंगे ये तो किसी को नहीं पता. परन्तु इतना जरूर मालूम है कि हमारी अंतर्रात्मा हमें धिक्कार रही है. जिसे परमात्मा का रूप समझा जाता है. इसलिए हमें अपनी अंतर्रात्मा कि आवाज़ को सुनकर इन सामाजिक कु-कृत्यों के विरुद्ध आवाज़ बुलंद करके समाज में जाग्रति पैदा करना है. प्रस्तुत है कविता……………………….. .. कांपने लगी धरा, और कांपने लगा गगन. इंसान जब करने लगा, स्वयं का यहाँ पतन.. .. दन्ग हूँ सुनकर के मैं, मौत के मृदंग को. काम-क्रोध-वासना के, लोटते भुजंग को.. .. आहट नहीं सुनी , जो अट्टाहस बन गई. सामने जो वज्र सी, दीवार आके डट गई. .. सुन रहा अट्टाहस , और सुन रहा हूँ सिसकियाँ. नौच डाले पंख जो भी, उड़ रही थी तितलियाँ.. .. यौवन के द्वार पर जैसे ही रखा उसने कदम. काम-क्रोध-वासना के दानवों से घिर गई. अस्मत-अस्तित्व बेचारी बचा न सकी, स्वप्न- माल बचपन से जो भी बनाई थी, क्रूरता के हाथों से टूटकर विखर गई.. .. अजीब-अजीब अट्टाहस, अबला ! सह न सकी. चेहरे पर भय, अधरों पर याचना, किसी से भी, कह न सकी.. .. भय बनी सिसकियाँ, सिसकियाँ बनी चीत्कारें, चीत्कारें अचानक! स्तब्धता में बदल गई. और.- रक्त से रंगी धरा. पुष्प डाली से टूटकर, एक अधपका, फिर से गिरा- फिर से गिरा. .. और फिर शुरू हुआ- माँ-बाप के रुन्दन का, भीड़ के उतावलेपन का, प्रत्येक के लिए उत्सुकता का, परिजनों की असमर्थता का, मीडिया को भरपूर मसाले का, पुलिस के मुंह को निवाले का, घिनौना खेल…. .. इस खेल में समाज द्वंदी है. कुरीतियाँ प्रतिद्वंदी है. जो लगातार विजय पा रही है. अपने प्रतिद्वंदी जनक को छका रही हैं. परन्तु विवश है समाज- जो जीत की चाह लिए, हारने के लिए मजबूर है. .. ज़ख्म जो अब तक हरा था, अब बन गया नासूर है. भयानकता के दौर में भी, शासन नशे में चूर है. .. खेल कुछ आगे बड़ा- आवाज़ आई- क्या हुआ ? पता नहीं ! क्यों हुआ ? पता नहीं ! कब तक होगा ? पता नहीं ! किसने किया, कौन था ? मजमे को मालूम था, पर मौन था. .. घटना पर चर्चा का बाज़ार था गर्म. कोई नहीं समझा व्यथित माँ का मर्म. किसी के लिए था प्रहसन. किसी को था मनोरंजन. किसी को बनी सत्य-कथा. व्यथित मन से लिख रहा हूँ. मैं भी ये व्यथा. .. कोख में थी तब सताया. आँख खोली तब सताया. बेटी बनी तब सताया. वधु बनी तब सताया. माँ बनी तब भी सताया. .. कोख से कब्र तक– जननी सताई जा रही है. सात फेरों से बंधी, भगिनी सताई जा रही है. .. बंद ये सारा हवश का खेल होना चाहिए. आत्मा का परमात्मा से मेल होना चाहिए. .. दानवों के दुस्साहस पर अंकुश लगाने आईए एक दीप “अंकुर” ने जलाया, एक आप जलाईए. ********************************************
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