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फकीरी धर्म लायेगा धरा पर स्वर्ग सुन्दर……

कड़वा सच ......
कड़वा सच ......
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हो रहा भूचाल सा कैसा अनौखा नृत्य,

धरती कांपती है और अम्बर रो रहा है /

धधकती  ज्वाला उरों में जल रही है,

मचलती है टीस की बारूद फटने को हवा में /

किन्तु सागर सो रहा है /

पूर्व आने के कोई तूफान रुक जाती हवाएं,

मौन सन्नाटा समेटे हो भुजाओं में दिशाएं /

चीख सुनने को मिलेगी !

इसलिए तुमको चुनौती दे रहा है,

वक़्त का साम्राज्य अपना सर उठाये /

आग को रोको नहीं तो-

जो उठा तूफान दुनियां को मिटा देगा /

आदमी से आदमी को तोडना,

हाथ अपने से चिता अपनी बनाते जा रहे हो /

खोद लो तुम कब्र अपनी, और उसमे बैठ जाओ /

क्यूंकि फिर नहीं तुमको कोई कन्धा मिलेगा /

भाइयों को क़त्ल करदो, फूंक दो इंसानियत को /

बहिन- बेटी – माँ कोई बाकी न बच पाए हवस से,

तुम चबा मासूम बच्चों को मिटा लो भूख अपनी /

सत्य को तुम झूठ की ऊँची पहाड़ी से गिरा दो /

प्रेम को फाँसी अमन को तुम सुपुर्दे खाक कर दो /

फिर नहीं तुमको कभी इससे बड़ा धंधा मिलेगा /

मंदिरों और मस्जिदों में तुम बना लो मोर्चे /

और उस भगवन को साखी बनाकर,

हाथ में संगीन लेकर कसम खाओ /

अब नहीं हम पनपने देंगे अमन को,

और हम महरूम कर देंगे बहारों से चमन को /

लूट लो खुशियाँ ज़माने की,

और तुम मत दूसरों को, चैन से जीने कभी दो /

यह तुम्हारा “धर्म” है ?

जो त्याग-सयता-स्नेह से कितना कलंकित हो गया है /

साफ़ करलो बह रहा है खून, पानी की तरह इंसानियत का /

पेड़ पर फल आ रहे है –

यह तुम्हारे धर्म के विपरीत हैं,

लाओ कुल्हाड़ा काट लो तरु को, न ले पाये छाया कोई भी ,

बह रहा है नीर क्यौं, क्यों चांदनी बरसी धरा पर ?

सूर्य क्यौं आता ज़माने पर छिड़कने को उजाला ?

धर्म का अनुरोध मानो-

देखना कायर न बन जाए तुम्हारी वीरता /

वृद्ध – बालक देखकर मुट्ठी न हिल जाये तुम्हारी /

या सलज्जा बालिका की देह विक्षत,

धर्म का इतिहास पावन मौन दुनियां से न कह दे /

भूत से हमको नहीं कोई शिकायत /

अब नहीं चिंता हमें आगत समय की,

धर्म की तलवार जो लटकी हमारे शीश ऊपर ,

मैं उसी से दर रहा हूँ /

लेखिनी भी कांपती है शब्द को मुंह से उगलते,

भर गया आतंक चारों ओर कैसी वेदना है /

हाथ में बारूद लेकर और कर बिस्फोट उसका,

तू स्वयं अपने अनागत को विगत क्यों कर रहा है ?

क्या निरीहों पर तुम्हारी वीरता विजयी बनेगी ?

हो गई सिन्दूर से सूनी सदा को मांग,

माताएं निपूती हो गई है /

राखियाँ लेकर के बहने अब प्रतीक्षा क्यों करेंगी ?

वे तुम्हें इतिहास का केवल कलंकित दाग कह कर , मौन हो सिसकी भरेंगी /

जाओ, जाकर तुम निहारों मौन करुनामय उरों को,

आँख, आँखों से मिलाओ रो उठेगी क्रूरता भी /

केखकर उनकी उदासी तिल्मिलाएगी पिपासा,

बन गई जो रक्त प्यासी /

कांप जाये उर तुम्हारा झांक लो और देख लो /

बैठ कर वह वीरता क्यों रो रही है /

वह तुम्हारा दर्प क्यों आंसू बना है, बह रहा है ?

क्यों पकड़कर बाल दोनों हाथ से सर को हिलाते /

तुम कभी इतिहास से बातें करो उसको टटोलो /

खोल देगा वह kaling के लाल पन्ने /

तोड़ दी तलवार वह सम्राट भी तुमको मिलेगा /

और वह पागल मिलेगा, छोड़कर जो राजधानी,

पुत्र-पत्नी को पिता को बन गया भिक्षुक /

है अमिट इतिहास में उसकी कहानी /

फैक दो एसा खिलौना हाथ जो अपने जला दे /

छोड़ दो वह धर्म जो इंसानियत का खून करदे /

और आ जाओ फकीरों में गिरों को तुम उठाओ /

मर रहे है भूख से जो लोग,

उन्हीं में सब लुटा दो /

खोल दो अपना खज़ाना प्रेम का /

जो ह्रदय में सुप्त होकर मर रहा है/*

*/

यह फकीरी धर्म लायेगा धरा पर स्वर्ग सुन्दर /

देश भारत है यहाँ पूजा फकीरों की हुई है /

हो रही है और होगी /

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