kaduvi-batain
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आज फिर से …..
(रचना काल- १३ अप्रैल, २०१३ )
टूटे घड़े , सुराही, मैली चादर कमरे मैं सजा लीं थीं|
मुझे बड़ा करने मैं पापा ने ये चीजें बचा लीं थीं|
बस्तियां लूट के लुटेरे मेरे गाँव तक आ पहुंचे|
बंद घडी, फटी छतरी, टूटी खटिया अम्मा ने छुपा लीं थीं|
मैंने मुड़ के देखा था पर रुक नहीं जाते वक़्त|
मां की नज़र हटी नहीं दूर तलक, मैंने हटा लीं थीं|
गाँव की अमीरी मैं ताव देते रहे जिन पे इज्ज़त से|
शहर की गरीबी मैं वही मूंछें हमने कटा लीं थीं|
Copyright@Himanshu Nirbhay
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