kaduvi-batain
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रचना काल- ८ मार्च १९९५
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आज दिल के दर्पण पर दस्तक सी हुयी,
बिम्बों के कई और प्रतिबिम्ब बने
कुछ जाने से, कुछ पहचाने से
शायद वे अपने थे–सोचा दिल ने
तभी न जाने कहाँ खो गए,
बहुत ढूँढा पर न मिले…..
आज भी, अब भी आस है की,
कोई किरण आयेगी
दर्पण के सामने,
प्रतिबिम्ब फिर से बनेगे
कुछ जाने से , कुछ पहचाने से, और
कुछ अनजाने से
शायद, वे अपने होंगे…..|
copyright@Himanshu Nirbhay
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