kaduvi-batain
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रचना काल- २७ मई २०१३
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अक्सर डस लिए जाते हैं,
उसी विषधर से
जो आस्तीन मैं पलता है,
क्यूँ
मित्र ही
निज मित्रता को छलता है,
कैकेयी दुर्बुद्ध हो जाती है,
सीता मृग लोभ मैं
फंस जाती है
लंका जल जाती है,
द्रोपदी भरी सभा मैं
नग्न कर दी जाती है
और महाभारत
शुरू हो जाती है
अल्पभाव मैं “माँ”
अक्सर
भूखी ही सो जाती है
जनता हर बार
ठगी जाती है
जिंदगी न जाने क्या क्या
खेल रचाती है
जब
समय की धारा
विपरीत चली जाती है…………….
copyright@Himanshu Nirbhay
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