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कलम के सिपाही ‘कलम का मुद्दा’ ना बनें

 मेरी अभिव्यक्ति
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@iamshubham
जब मैं अपना भविष्य एक पत्रकार के रूप में देखने की सोचता हूँ तो इसका अर्थ है की मैं देश के लोकतंत्र और अपने कलम की ताकत में विश्वास रखता हूँ। कॉलेज में भी मुझे देश में पत्रकारिता के उद्गम का इतिहास बताया गया है. किस तरह से इसे एक मिशन के रूप में शुरू किया गया और देश की स्वतंत्रता आंदोलन में इसका कितना बड़ा योगदान रहा है इस बारे में पढ़ के। जान के इस बात पर गर्व होता है की जिस क्षेत्र में मैं अपना भविष्य देखता हूँ वो समाज में कितना महत्व रखता है।

आज जब हमारे पास पत्रकारिता के इतिहास, इसके मूल्यों और तमाम नैतिक ज्ञान को देने वाली किताबों का इतिहास भी 60 साल पुराना हो गया है। तो ऐसे में सवाल उठता है कि क्या ये वही पत्रकारिता है जो हमें किताबों में मिलती है? क्या ये वही पत्रकारिता है जिसके धार ने देश को 200 साल पुरानी गुलामी की जंज़ीरो से आजादी दिलाई? क्या ये वही पत्रकारिता है जिसके शौर्य की आग ने देश को एक नया सूरज दिया?

जैसे-जैसे ऐसे सवाल मन में आते हैं, मन का धीरज कमज़ोर पड़ने लगता है और भविष्य में अपनी प्रासंगिकता पर भी शक होने लगता है। केवल टीवी पर दिख जाना या अखबार के पन्नों पर घटनाओं को उकेर देना ही ज़िम्मेदारी का अंत नहीं हो सकता है। जब हुक्मरानों से सवाल पूछना लोगों के अंदर ये विश्वास पैदा कर दे कि आप देश के लोकतंत्र के लिए खतरनाक हो सकते हैं या चिल्ला- चिल्ला के आप टीवी स्टूडियो को कोर्टरूम तब्दील कर दे और आपके कुशल अभिनय और संवाद से प्रभावित हो कर लोग आपको एक जज के रूप में पूजने लगे तो ये सोचना ज़रूरी हो जाता है कि इन 60 सालों में हमने कैसा देश बनाया है?

ये वो दौर है जिसमे पत्रकारिता को महज एक सीढ़ी के तरह से इस्तेमाल किया जा रहा है. लोगों को लोकतंत्र के मंदिर के कीवाड़ तक पंहुचना होता है। जहाँ बैठे सफेदपोष लोगों की सफेदी दिन पर दिन बढ़ती जा रही है और जिन मज़लूमो की आवाज़ बनने का वो दावा करते हैं उनके बदन पर लिपटी मिटटी ही उनकी कब्र बन जाती है। बदन पर लगी पत्रकारिता की नीली काली स्याही को रगड़- रगड़ के सफ़ेद खद्दर बनाना ही लोगों का मूल उद्देश्य बनता दिख रहा।

देश भर में पत्रकार दो धड़ो में बंट चुके हैं। एक सरकार का गुणगान करने में डूबे हुए हैं, और दूसरे हर मुद्दे पर सरकार पर निशाना साध रहे हैं। इस चक्कर में सच्चाई का साथ देने वाला कौन है इस बात को तय करने वालों की भी अपनी अलग लड़ाई है। शब्दों के इस समर में अगर कोई बर्बाद हो रहा है तो वो है देश।

लोगों के बीच से जैसे पत्रकारिता के विश्वनीयता को ले कर के शक पैदा होने लगा है उसको संभाल नहीं गया तो वो वक़्त दूर नहीं जब इसकी प्रासंगिकता ही लोगों के बीच से समाप्त हो जाएगी। स्वार्थ की राजनीति कैसे की जाती है इसे देश भली- भांति समझता है। कलम के सिपाही कलम का मुद्दा ना बनें इसी में लोकतंत्र की जीत है।

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