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दिल्ली के शकुरबस्ती में झुग्गियों को हटाने को लेकर हुए विवाद ने शहरों के उस विकराल समस्या के तरफ लोगों का ध्यान एक बार फिर से खिंचा है जिसके बारे में टीवी चैनलों पर बहस तब गरमा जाती है जब वातावरण का तापमान गिरता है। एक तरफ इस मुद्दे को भुना कर राजनीतिक पार्टियां अपनी रोटियों को सेंकने में लगी हैं, तो वही आम इंसान के लिए यह देश की खोखली विकास गाथा और असफल नीतियों पर से पर्दा उठा रही है।
आज जब हमें लगता है कि हमने भौतिक दुनिया में खुद को इतना विकसित कर लिया है कि अब आभासीय दुनिया में हमे अपने पाँव मज़बूत करना चाहिए तो इसका मतलब ये होता है कि हमने अपने लोगों को उनके मूलभूत संसाधनों से जोड़ दिया हैं, जिसके बाद अब हमारा अगला कदम उनके जीवन स्तर को बेहतर बनाने के लिए होगा। लेकिन जब एक घटना के बाद पता चलता है कि देश की चार करोड़ से ज्यादा आबादी झुग्गियों मे रहने को मज़बूर है तो विकास के सभी मापदंड झूठे से लगने लगते हैं।
जिस तरह से देश में कृषि की उपेक्षा और औद्योगीकरण में वृद्धि एक साथ हुई है उसी का परिणाम हुआ है कि गाँव के लोगों का रुझान शहरों की ओर बढ़ा। नौकरियों के लालच में लोग शहर में तो बस गए पर संसाधनों के सीमित उपलब्धता और इनके असंतुलित वितरण के कारण आर्थिक विसमता इस कदर पैदा हुई कि इसकी खाई समय के साथ लगातार बढ़ती चली गई, जिसका नतीज़ा ये हुआ कि देश की आबादी का एक बहुत बड़ा हिस्सा विकास की आंधी से आज तक अछूता रह गया। आज भी वो लोग जो झुग्गियों में जीवन गुज़ारने को मज़बूर हैं, बहुत मुश्किल से अपनी मूलभूत ज़रूरतें- रोटी, कपड़ा और सिर ढंकने के लिए मकान का जुगाड़ कर पाते हैं। क्योंकि जिस झुग्गी में वो रहते हैं, वो किसी सरकारी ज़मीन पर अवैध रूप से बसाई हुई रहती है और उसे कभी भी उजाड़ दिया जाता है, जिसका ताज़ा उदाहरण शकुरबस्ती में देखा गया।
आज सिर्फ दिल्ली में 40 लाख से ज्यादा झुग्गियां हैं, जो दिल्ली की आबादी की एक तिहाई है। एक रिपोर्ट के अनुसार इन झुग्गियों में रह रहे लोगों की प्रतिदिन की आय 50 रूपये से भी कम की होती है।
देश की आर्थिक राजधानी मुम्बई में सबसे ज्यादा झुग्गियों की आबादी बसती है, दूसरे स्थान पर उत्तर प्रदेश और तीसरे पर राजधानी दिल्ली आती है।
झुग्गियों में रहने वाले लोगों को बेहतर शिक्षा, बिजली, पानी, सड़कों जैसी ज़रूरी सुविधाएं मुहैया करना सरकार के लिए आज भी चुनौती साबित हो रही है। आज़ादी के 68 वर्ष बाद भी अगर एक बहुत बड़ी आबादी अपने मूलभूत सुविधाओं से मय्यसर है तो यह ज़रूरी हो जाता है कि सरकारी महकमा अपनी योजनाओं और उनके क्रियान्वयन के बारे में विचार करे। जिस तरह से बस्तियों को उजाड़ कर हज़ारों सिर से उनके छत छीन लिए जाते है वो निंदनीय है। आज जब दिल्ली में तापमान 6 डिग्री सेल्शियस से भी नीचे गिरने लगा है तो ऐसे में गरीबों को बेघर कर ठंड में तड़पने के लिए छोड़ देना एक अमानवीय कदम कहा जाएगा।
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