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नारित्व की उपेक्षा

 मेरी अभिव्यक्ति
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कभी धर्म के नाम पर, कभी सामाजिक कायदे कानूनों की दलीलें दे कर, तो कभी वर्षों पुरानी संस्कृति का हवाला दे कर महिलाओं की उपेक्षा की घटनाएं समय समय पर हमारे सामने आती रही हैं। किसी लड़की के बलात्कार के बाद उसके पहनावे, उसके चाल चलन, उसके चरित्र पर इस तरह से उंगली उठने लगती हैं जैसे सभी सामाजिक अपराधों और उनकी पोषित हो रही जड़ों के लिए हम स्त्रियों को कारण मान बैठे हैं।
सामाजिक रिवाज़ों, धर्म और परंपराओं के नाम पर हमेशा नारित्व की उपेक्षा और उपहास किया गया है।

हाल में महाराष्ट्र के शिगनापुर शनि मंदिर में एक महिला द्वारा शनि भगवान की पूजा करने के बाद विवाद पैदा हो गया है। इस विवाद ने ना सिर्फ महिलाओं की हो रही उपेक्षा के बहस को गरमा दिया है, बल्कि इसका इशारा हमारी कुंठित कुरीतियों और समाज में वर्षों से स्थापित पुरुष प्रधान मानसिकता की तरफ भी है।

जिस कारण से धार्मिक स्थलों पर महिलाओं के प्रवेश को वर्जित कर उन्हें ईश्वर के आशीर्वाद से वंचित रखा जाता है, वह ईश्वर द्वारा निर्मित उनके शरीर की प्राकृतिक क्रिया मासिकधर्म है। लोग धर्म की दुहाई दे कर इसे इसलिए अपवित्र मानते हैं क्योंकि मासिकधर्म के वक़्त निकलने वाले रक्त का निकास स्त्री शरीर के उस अंग से होता है जिसके बारे में बोलना समाज में असभ्य और अमर्यादित माना जाता है। उस रक्त को दूषित भी माना जाता है, जबकि लोगों के इस धारणा के पीछे कोई वैज्ञानिक साक्ष्य भी नहीं मिलते। यदि शरीर की जीवन भर की पवित्रता या अपवित्रता का निर्धारण किसी अंग से निकल रहे रक्तों के अंशो से होता है तो इस नाते धार्मिक स्थलों में पुरुषों के प्रवेश को भी वर्जित कर देना चाहिए। क्योंकि जिस वीर्य का निकास उनके शरीर से होता है, उसके हर एक बूँद का निर्माण लाखों रक्त कोशिकाओं के संयोजन से होता है और इसका तो वैज्ञानिक साक्ष्य भी मौजूद है। जिस रक्त से एक माँ बच्चे को जन्म देती है वह दूषित कैसे हो सकता है ? रक्त के निकास की और बच्चे के जन्म का रास्ता एक होने के बाद भी एक अपवित्र और दूसरा अपवित्र कैसे ?

नवरात्री के वक़्त लोग नौ कुँवारी कन्याओं को भोजन करा उनके पाँव पखारते हैं, पाँव छू उनसे आशीर्वाद लेते हैं, क्योंकि धर्म में नारी को शक्ति का रूप कहा गया है। वही शक्ति जिसके रूप को कभी दुर्गा के रूप में, तो कभी काली के रूप में पूजा जाता है। कभी स्त्रियों को देवी का दर्जा मिलता है तो कभी उनका उपहास होता है। जिस तरह से समाज के रीती रिवाज़ों से उन्हें बहिष्कृत किया जाता है वह निंदनीय है।

महिलाओं की उपेक्षा, धर्म और जाति के नाम पर होने वाले कुकृत्यों की कड़ी की एक वो काली कड़ी है जिसमे कभी तथाकथित निचली जाति के लोगों का मंदिरों में प्रवेश वर्जित था। उन्ही कड़ियों में सती प्रथा, बाल विवाह जैसी तमाम कुरीतियां शामिल थीं, जिन्होंने समय के साथ दम तोड़ दिया।

इन रिवाज़ों का इतिहास इतना पुराना है कि ये हमारे समाज में आज उतनी ही अनिवार्य बनी हुई हैं जितनी की सदियों पहले सती प्रथा अनिवार्य हुआ करती थी। इन्हें मानने वाले लोगों के तर्क तब कमज़ोर पड़ने लगते हैं जब उनसे कोई प्रतिवाद करते हुए पूछता है कि ‘जब किसी स्त्री के स्पर्श मात्र से मूर्ति अपवित्र हो जाती है तो वह किसी गाय के दूध से धोने पर कैसे शुद्ध होगी जो खुद एक मादा है ?’

धर्म हमेशा जीवन की बेहतरी के लिए होता है। यह हमारे जीवन को एक अनुशासन प्रदान करता है। जिस तरह से कुरीतियों को प्रचारित किया जाता है उससे धर्म और ढोंग में बटवारे की एक बहुत पतली लेकिन धारदार लकीर बन जाती है। बदलते वक़्त के साथ मान्यताओं और रिवाज़ों में अनुशासनात्मक परिवर्तन अनिवार्य होते हैं, जिससे हर युग में धर्म की प्रासंगिकता बनी रहती है। जिस तरह सदियों पहले सर्वमान्य कई रीतियों को आज ठंडे बस्ते में बंद कर कुप्रथाओं की तरह याद किया जाता है, उसी प्रकार आज भी कुछ ज़रूरी बदलाव समय की मांग है। इन बदलाव को ला कर आने वाली पीढ़ी को एक बेहतर दुनिया देना हमारा कर्तव्य है।

मेरा मानना है कि भगवान को कौन पूजेगा और कौन नहीं, ऐसे नियम तो कम से कम भगवान नहीं बनाए होंगे। अगर ये नियम इंसानों के बनाए हुए हैं तो आज समय आ गया है कि इनकी समीक्षा हो।

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