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!! गैर-क़ानूनी हिस्सा !!
मन मेरा भी धिक्कारता है!
करता हूँ गुनाह
तो चुपके से
मन
खुद के कोने में
बहुत-बहुत कचोटता,
मुझे बहुत फटकारता है!
झिझक के आगे झुक कर
स्वीकार कर लेता हूँ ग़लती
और नहीं होगा फिर कभी कुछ ऐसा दोबारा
कहते हुए खुद का चेहरा बहुत-बहुत ताड़ता हूँ
और तभी चेहरे पर जड़ी आँखों पर
नज़र पड़ती है,
नज़रों के गहरे ख्वाबों में
मेरे परिवार की छवि उमड़ती है,
मैं बहुत कुछ कहते-कहते
एकदम से चुप रह जाता हूँ
सोचता हूँ थोड़ा
और बहुत-बहुत बड़बड़ाता हूँ!
मन मेरा फिर धिक्कारता है…
लेन-देन में
मुझसे लेने का जो करता है गुनाह
वो भी तो सिर्फ़ इसीलिए
क्योंकि वो अपना परिवार पालता है!
समाज का जो ये सार बदल जाए
केवल खुद में जी कर
साँसों का किरदार ढल जाए
तो नहीं करूँगा कोई गुनाह
कह कर
उठ खड़ा होता हूँ
एक बार फिर से नज़रें बचा कर
अपना गैर-क़ानूनी हिस्सा
अपने परिवार के लिए
मुट्ठी में भींच लेता हूँ … ….
अपनों के लिए ही तो
टूटा है इंसान!
वरना और किसने
लूटा है इंसान?
– IKSHIT “Ashish Anand Arya”
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