ikshit
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क्या अब नेता की परिभाषा बदलेगी?
क्या अब नेता की परिभाषा बदलेगी?
क्या अब जनता की आशा संभलेगी?
अरमान बहुत भले हैं
सरकार साधने चले कांधों से…
पर आलू क्या भाव बिकेगा
प्याज क्या फिर आँसुओं पर ही छिलेगा
आज भी ‘रोटी’ को “सपना” कहने वालों की
दरकार वही है…
तो अब क्या नेता की नयी परिभाषा ढलेगी?
क्या अब जनता को धीरज की भावना से
चेहरे पर पुरस्कार की मुस्कुराहट मिलेगी?
टूटी थी जो चूड़ियाँ
कर के कलाईयों को सूना
घर की बहुओं की माँग में
क्या अब उनको
दुश्मनी के दंश पर चीख भरती
मझधार नहीं मिलेगी?
सवाल बड़े हैं
राम-राज्य की अटकलों पर
सशक्त होते भारतीयों के बीच
तो…
क्या अब भ्रष्टाचार की दाल नहीं गालेगी?
क्या अब नेता की परिभाषा बदलेगी?
क्या अब ग़रीब की आस
रोटी के सपनों से उबर कर
कपड़ा और मकान के सच पर फलेगी?
क्या अब नेता की परिभाषा बदलेगी?
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