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नन्ही सी कली,
आगन में खिली,
माँ के आचल में नाजो से पली,
बाबा की थी वो सोन परी,
बोली उसकी जैसे मिश्री की डली,
कहते थे सब उस को मनचली,
धीरे-धीरे फूल बन गई वो नन्ही कली,
कहने लगे सब जल्द ही हो जाएगी पराई अब हमारी परी,
सुन कर सब बाते शरमा जाती वो शर्मीली,
और साजन के सपने सजने लगाती वो मनचली,
ऐसे ही हँसते खेलते वो प्यार के साये में पली,
ससुराल कि बगीया को महकाएगी प्यार से बाबा की नन्ही कली,
खुद से यह वादा कर वो सोन परी,
एक दिन हजारो सपने साजो ससुराल की डगर चली,
ससुराल में पलकों पर रखी गई वो नाजुक सी परी,
ससुराल की बगीया को प्यार से महकने लगी वो कली,
पर धीरे-धीरे मुरझाने लगी वो नन्ही कली,
क्योकि दहेज के भूखे राक्षसों के बीच आ गई थी वो मनचली,
पहले-पहले तानो से छलनी की गई वो नाजुक सी परी,
फिर लात-घुसे से रोधी गई वो नन्ही कली,
संस्कारो के नाम पर सब चुपचाप सहती रही वो पगली,
किसी को कुछ न कहती वो शर्मीली,
दहेज न लाने के इरादे से जब वो न हिली,
दहेज के भूखे राक्षसों की उस पर जब एक न चली,
तो एक दिन आग की भेंट चढ़ दी गई वो नन्ही कली,
और भयानक चीख बन गई उस की बोली,
जो कभी थी मिसरी की डली,
दहेज रूपी काल निगल गया एक और नन्ही कली,
हम से सवाल कर रही हर सोन परी,
तुम्हरे आगन में क्यों खिले कोई नन्ही कली,
दहेज के भूखे राक्षसों का क्यों ग्रास बने हम मनचली,
क्या दहेज लेने देने की प्रथा अभी भी चलायेगे हम,
क्या अपनी नन्ही कलिओं को इसका ग्रास बनायेगे हम,
क्या अपने देश को नारी विहीन कर न चाहेगे हम,
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