“फलाना जी अमर रहें” हम यह दावे के साथ कह सकते हैं कि आपने इस तरह का नारा पहले भी सुना होगा. यह नारा पढ़ते ही आपको वे दृश्य और उसके पीछे की घटना का भी स्मरण हो आया होगा जिसके कारण यह नारा लगाया जा रहा है. वजह किसी नेता, धार्मिक गुरु, समाजसेवी आदि की मृत्यु का अवसर हो सकता है और उनके शिष्य अपने नारों में उनकी अमरता की कामना करके यह जता रहे हैं कि वे अपने स्मृतियों में उन्हें मरने नहीं देंगे. पर कुछ लोग ऐसे होते हैं जिन्हें अमर करने के लिए इस तरह के नारे लगाने की जरूरत नहीं पड़ती क्योंकि वे अपने जीवनकाल में ही अपनी उम्र के पार भी जिंदा रहने की व्यवस्था कर जाते हैं. जैसे की 18 साल की आयशा चौधरी ने किया.
आयशा की मृत्यु हो चुकी है और उसे केवल 18 वर्ष की आयु मिली थी, पर उसकी यह छोटी सी जिंदगी कई लोगों के लिए जिंदगी को जिंदादिली से जीने का प्रेरणास्रोत बन सकती है. खासकर उनके लिए जिन्हें अपने जीवन से शिकायत है. जो ये सोचते हैं कि उन्हें एक सामान्य जिंदगी नहीं मिल पाई और अपने जीवन के उन पलों को कोसते हैं, जब उनके जीवन का रुख सामान्य से असामान्य की तरफ मुड़ गई थी. लाइलाज बीमारी पाल्मोनरी फाइब्रोमा से जूझ रही आयशा के पास इन शिकायतों में उलझने का वक्त नहीं था. वह जानती थी कि बहुत जल्द वह वक्त आ जाएगा जब उसे इस जीवन को अलविदा कहना पड़ेगा.
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पिछले कुछ सालों से उसका पूरा समय बिस्तर पर पड़े-पड़े ही बीत रहा था. कमजोरी इतनी कि कहीं आना जाना तो दूर उसका सांस लेना भी दूभर हो चुका था. इस दौरान एक दिन आयशा चौधरी के पिता नीरेन ने आयशा को पढ़ने के लिए एक किताब दी. उसे पढ़ने के बाद बीमार आयशा ने अपने पिता से कहा कि इससे बेहतर किताब तो वह खुद लिख सकती है. बेटी की इच्छा के लिए उसके पिता ने उसके हाथ में पेन कागज थमा दिया फिर क्या था पांच महीने में उसने अपनी किताब लिख डाली और जिसे उसके पिता ने पब्लिश भी करा दिया.
अगर आप 18 साल की लड़की के किताब के स्तर का अनुमान लगा रहे हैं तो आपको बता दें कि इस किताब की प्रशंसा मशहूर हॉलीवुड फिल्म निर्माता डैनी बोयल ने भी की है इसके साथ जाने माने फिल्म निर्माता शेखर कपूर और गीतकार स्वानंद किरकिरे ने भी आयशा के किताब की तारीफ की. यही नहीं, दुनिया भर के लाखों पाठकों ने आयशा के लेखन कला की प्रशंसा की है.
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इसी साल 24 जनवरी को उसने अंतिम सांस ली. अपनी जिंदगी के आखिरी पांच महीनों में उसने अपनी किताब लिखी और उसे अपने हाथ में पाते ही उसने दुनिया छोड़ दी. जैसे वह इसी किताब के छपने का इंतजार कर रही थी. पांच साल पहले आयशा को पता चला था कि उसे पाल्मोनरी फाइब्रोमा है पर जिंदगी के आखिरी पांच महीने में अपनी किताब लिखकर वह अपनी उम्र से बहुत आगे का सफर तय कर गई. उसके लिए अमरता के नारे लगाने की कोई जरूरत नहीं है. सचमुच कुछ लोगों की जिंदगी का हिसाब उम्र की गिनती से नहीं लगाया जा सकता. आयशा ऐसे ही कुछ लोगों में शामिल है. Next…
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