मानव सृष्टि का सबसे बुद्धिमान प्राणी है. जब से सृष्टि अपने अस्तित्व में आया तब से मानव ने अपनी बुद्धि का प्रयोग करके अपने साथ-साथ समाज का भी विकास किया है. मानव ने नई-नई खोजों और अविष्कारों से यह साबित कर दिया कि आने वाला भविष्य उसके ही इशारों पर चलेगा. यह तो था मानव का विकसित रूप लेकिन जब हम इसी मानव के दूसरे पहलू पर नजर डालते हैं तो कुछ अलग ही तस्वीर दिखाई देती है. यह तस्वीर इतनी भयावह है कि हमें सोचने पर मजबूर करती है कि क्या यह वही मानव है जिसने अविष्कारों के अलावा कुछ सोचा ही नहीं.
जब से मानव का विकास हुआ तब से हमें अमानवीयता के भयंकर रंग रूप भी देखने को मिले हैं. मानव की गरिमा, स्वाभिमान और अधिकारों के साथ खिलवाड़ करके उन्हें शारीरिक और मानसिक रूप से प्रताड़ित किया जाता रहा है. पिछले कई सालों में मानव के साथ कुछ ऐसे प्रयोग किए गए जिन्हें देखकर ऐसा लगता है कि इससे बड़ी मानवीय क्रूरता कुछ हो ही नहीं सकती.
अमानवीयता में अफ्रीकी देशों का स्थान सबसे ऊपर है. दक्षिण अफ्रीकी सेना द्वारा सन् 1970 से 1980 में लेस्बियन और गे सैनिकों का जबरन लिंग परिवर्तन किया गया. इसके लिए समलैंगिक सैनिकों को बिजली का झटका और खतरनाक दवाइयां भी दी गईं. इस प्रयोग का उद्देश्य सेना में से समलैंगिकता को जड़ से उखाड़ फेंकना था.
उत्तरी कोरिया में कई ऐसी घटनाएं घट जाती हैं जिसकी जानकारी उसके पड़ोसी देशों को भी नहीं होती. इसी तरह की एक घटना में एक महिला कैदी ने बताया कि एक प्रयोग में 50 स्वस्थ महिला कैदियों को जहरीली पत्तियां जबरदस्ती खाने को दी गईं जिसे खाने के बाद उनके मुंह और गुदा से खून निकलने लगा और सभी 20 मिनट के भीतर मर गईं. महिला कैदी ने बताया कि पत्तियों को खाने से इंकार करने पर भी उन्हें जबरदस्ती खिलाया जाता था.
सोवियत सीक्रेट सर्विसेज की जहरीली प्रयोगशालाओं को लैबोरेट्री 1, लैबोरेट्री 12 और द चैंबर के नाम से भी जाना जाता है. इन प्रयोगशालाओं में कई कैदियों की जिन्दगी के साथ खिलवाड़ किया जाता था. इसमें कैदियों को जहरीले रसायन का स्वाद चखाया जाता था. इस प्रयोग का उद्देश्य ऐसे स्वादहीन और गंधहीन रसायनों की पहचान करना था, जिनके इस्तेमाल के बाद पोस्टमार्टम का पता न चल सके.
कंस्ट्रेशन कैंप्स में नाज़ियों द्वारा कैदियों पर कई तरह के अमानवीय प्रयोग किए गए. ऑशविक कंसंट्रेशन कैंप्स में डॉक्टर एडुअर्ड विर्थ्स के नेतृत्व में यह अमानवीय प्रयोग किए जाते थे. इन प्रयोगों में इंसान को बर्फ के ठण्डे पानी में तीन-चार घण्टे तक लिटाया जाता और उसे जमा देने वाले तापमान में नग्न होकर खड़ा कर दिया जाता. अधिकतर प्रयोगों में इंसान की मौत हो जाती थी. इस तरह के प्रयोग आज भी बड़ी संख्या में किए जाते हैं.
1951 में कास्टल ब्रावों में किए गए परमाणु परीक्षण के रेडियोएक्टिव प्रभाव को जानने के लिए मार्शल आयरलैंड के निवासियों पर प्रयोग किया गया. पहले दशक में लोगों पर इसका प्रभाव मालूम नहीं चल सका, लेकिन बाद में बच्चों पर इसके गंभीर प्रभाव दिखने शुरू हुए. कई बच्चे थायराइड कैंसर से भी भयंकर बीमारियों से पीड़ित हो गए.
पशुओ की तरह मानव के साथ किया गया यह प्रयोग केवल विदेशों में नहीं बल्कि भारत में पूरी तरह से व्याप्त है. पिछले दिनों खबर आई कि मध्य प्रदेश में मरीजों पर उनकी अनुमति के बिना कच्ची दवाओं का परीक्षण या (ड्रग ट्रायल) किया जा रहा है. राज्य में इसकी जांच के लिए एक कमेटी गठित कर दी गई. लेकिन जैसा कि अन्य कमेटियों के साथ होता है इस कमेटी के साथ भी यही हुआ. जांच कमेटी की रिपोर्ट भी दोषी डॉक्टरों के खिलाफ कार्रवाई के मामले में कोई उम्मीद नहीं जगा पाई.
आज भी हमें विश्व में कैदियों के साथ लगातार इस तरह के अमानवीय आचरण सुनने को मिल जाते हैं. मानव के साथ किए जाने वाले इस तरह के क्रूर प्रयोगों के लिए आखिरकार जिम्मेदार कौन है. क्या राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार संस्थाएं इस तरह की क्रूरता रोकने में सक्षम नहीं हैं.
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