हिंदुओं का धार्मिक ग्रंथ और साहित्य की सबसे अनुपम कृतियों में से एक ‘महाभारत’ आज भी लोगों के लिए जिज्ञासा का विषय है. इस महान काव्य में न्याय, शिक्षा, चिकित्सा, ज्योतिष, युद्धनीति, योगशास्त्र, अर्थशास्त्र, वास्तुशास्त्र, शिल्पशास्त्र, कामशास्त्र, खगोलविद्या तथा धर्मशास्त्र आदि के बारे में लोग आज भी जानना चाहते हैं. इसकी अद्भुत और रोचक घटनाएं इस ग्रंथ को और ज्यादा पढ़ने के लिए प्रेरित करती हैं. ऐसी ही एक घटना है अश्वत्थामा की मृत्यु को लेकर जिसके बारे में ऐसा कहा जाता है कि वह आज भी जिंदा है. इस बात में कितनी सच्चाई है इसे प्रमाणिकता के साथ कोई भी नहीं कह सकता.
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अब असल मुद्दा यह है कि आखिर महाभारत युद्ध में अश्वत्थामा के साथ ऐसा क्या हुआ था? क्या वह अन्य योद्वाओं की तरह युद्ध में वीरगति को प्राप्त नहीं हो पाया या फिर उसे जीवनभर भटकने का शाप मिला था? यह जानने से पहले आइए अश्वत्थामा के विषय में कुछ जान लेते हैं. जिस ग्रंथ में अर्जुन, कर्ण, श्रीकृष्ण, भीम, भीष्म, दोर्णाचार्य और दुर्योधन जैसे महारथी हो वहां अश्वत्थामा पर लोगों का बहुत ही कम ध्यान गया होगा. लेकिन आपको बता दें कि अश्वत्थामा महाभारत का ऐसा पात्र रहा है जो यदि चाहता तो युद्ध के स्वरूप को ही बदल सकता था.
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कौन है अश्वत्थामा
अश्वत्थामा गुरु दोर्णाचार्य और कृपी (कृपाचार्य की बहन) का पुत्र था. दोर्णाचार्य का अपने पुत्र के प्रति बहुत ही ज्यादा स्नेह था. इसी स्नेह की वजह से ही दोर्णाचार्य को अपनी सोच के विपरीत कुरुक्षेत्र युद्ध में अधर्मियों का साथ देना पड़ा. वह कौरवों के समर्थन में पाडवों के खिलाफ मैदान में उतरे थें.
गुरु दोर्णाचार्य की मृत्यु
बात युद्ध के दिनों की है जब भीष्म पितामह की तरह गुरु द्रोणाचार्य भी पाण्डवों के विजय में सबसे बड़ी बाधा बनते जा रहे थे. श्रीकृष्ण जानते थे कि गुरु द्रोण के जीवित रहते पाण्डवों की विजय असम्भव है. इसलिए श्रीकृष्ण ने एक योजना बनाई जिसके तहत महाबली भीम ने युद्ध में अश्वत्थामा नाम के एक हाथी का वध कर दिया था. यह हाथी मालव नरेश इन्द्रवर्मा का था. यह झूठी सूचना जब युधिष्ठिर द्वारा द्रोणाचार्य को दी गई तो उन्होंने अस्त्र-शस्त्र त्याग दिए और समाधिष्ट होकर बैठ गए. इस अवसर का लाभ उठाकर द्रौपदी के भाई धृष्टद्युम्न ने उनका सर धड़ से अलग कर दिया.
पांडवों के शिविर पर हमला
अपनी पिता की मृत्यु का समाचार मिलने के बाद द्रोण पुत्र अश्वत्थामा व्यथित हो गया. युद्ध के दौरान अश्वत्थामा ने दुर्योधन को वचन दिया कि वह अपने पिता की मृत्यु का बदला लेकर ही रहेगा. इसके बाद उसने किसी भी तरह से पांडवों की हत्या करने की कसम खाई. युद्ध के अंतिम दिन दुर्योधन की पराजय के बाद अश्वत्थामा ने बचे हुए कौरवों की सेना के साथ मिलकर पांडवों के शिविर पर हमला किया. उस रात उसने पांडव सेना के कई योद्धाओं पर हमला किया और मौत के घाट उतार दिए. उसने अपने पिता के हत्यारे धृष्टद्युम्न और उसके भाईयों की हत्या की, साथ उसने द्रौपदी के पांचों पुत्रों की भी हत्या कर डाली.
अपने इस कायराना हरकद के बाद अश्वत्थामा शिविर छोड़कर भाग निकला. द्रौपदी के पांचों पुत्रों की हत्या की खबर जब अर्जुन को मिली तो उन्होंने क्रुद्ध होकर रोती हुई द्रौपदी से कहा कि वह अश्वत्थामा का सर काटकर उसे अर्पित करेगा. अश्वत्थामा की तलाश में भगवान श्रीकृष्ण के साथ अर्जुन निकल पड़ें. अर्जुन को देखने के बाद अश्वत्थामा असुरक्षित महसूस करने लगा. उसने अपनी सुरक्षा के लिए ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया जो उसे द्रोणाचार्य ने दिया था. गुरुपुत्र होने पर भी उसे केवल ब्रह्मास्त्र छोड़ना आता था, वापस लेना नहीं आता था, तथापि अश्वत्थामा ने ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया. उधर श्रीकृष्ण ने भी अर्जुन को ब्रह्मास्त्र छोड़ने की सलाह दी. अश्वत्थामा ने ब्रह्मास्त्र को पांडवों के नाश के लिए छोड़ा था जबकि अर्जुन ने उसके ब्रह्मास्त्र को नष्ट करने के लिए.
ब्रह्मास्त्र को नष्ट करने के बाद अश्वत्थामा को रस्सी में बांधकर द्रौपदी के पास लाया गया. अश्वत्थामा को रस्सी से बंधा हुआ देख द्रौपदी का कोमल हृदय पिघल गया और उसने अर्जुन से अश्वत्थामा को बन्धनमुक्त करने के लिए कहा.
भगवान श्रीकृष्ण का शाप
अश्वत्थामा के इस कृत्य के लिए भगवान श्रीकृष्ण ने उसे शाप दिया कि ‘तू पापी लोगों का पाप ढोता हुआ तीन हज़ार वर्ष तक निर्जन स्थानों में भटकेगा. तेरे शरीर से सदैव रक्त की दुर्गंध नि:सृत होती रहेगी. तू अनेक रोगों से पीड़ित रहेगा तथा मानव और समाज भी तेरे से दूरी बनाकर रहेंगे. ऐसा कहा जाता है कि भगवान श्रीकृष्ण के शाप के बाद अश्वत्थामा आज भी अपनी मौत की तलाश में भटकता रहा लेकिन उसे मौत नसीब नहीं हुई.
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