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तू चरमपंथी…

इनसाईट स्टोरी
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आजकल देश में एक शब्द काफी सुनायी दे रहा है वह है चरमपंथ, इसके पीछे दो कारण हैं एक आने वाले आम चुनाव और दूसरा अफजल को फांसी. चारों और चरमपंथी खोजे जा रहें हैं. उनको अलग-अलग केटेगरी में रखा जा रहा है जैसे मुस्लिम चरमपंथी, हिन्दू चरमपंथी, फांसी के विरोधी, फांसी के समर्थक, वाम पंथी इसके अलावा भी ना जाने कितने. हर कोई दुसरे को चरमपंथी कह रहा है. ये चरमपंथी क्या है? कहाँ इस शब्द का प्रयोग हो इसके लिए कोई मानदंड तो है नहीं इसलिए जिसे सूझा बोल दिया. लेकिन अगर देखा जाय तो ये सब हरकतें हैं जिनका वास्तविकता से कुछ लेना-देना ना था ना होगा. आजकल सोशल मीडिया इन सब बातों का बड़ा पैरोकार बन गया है. करीब १० प्रतिशत खाली लोगों का एक समूह जिसका ज्यादा समय इंटरनेटी चिंतन में बीतता है इस चरमपंथ के पोषक बने है. आंतकवाद ने इस देश क्या दुनिया को बार-बार चुनौती दी है. जबकि हमारी संसद पर हमला हुआ, मुंबई में आतंकी हमला, कारगिल हमला, गोधरा और आये दिन लोकतंत्र की आत्मा पर होने वाले हमले के बाद भी हम चरमपंथ को छोड़ने को तैयार नहीं हैं. आतंकवाद से बड़ा हमला आज वैचारिक आतंकवाद के रूप में सामने आ रहा है. हर घटना को चरमपंथ के रूप में पोषित करना हमारी मानसिकता बन चुकी है. आज देश में कई संगठन और दल इस चरमपंथ के प्रचारक हैं. इसके पीछे महज कुछ त्ताकालिक स्वार्थों के कुछ दिखता नहीं है. कुम्भ हो या सियासी संसद कहीं भी इस मानसिकता के लोग मिल जायेंगें और इनका हाल ये है की एक मानसिकता के होते हुए भी ये लोग एक मंच पर आ नहीं पाते हैं. इस देश में कुछ भी किया जाय तो उसके विरोध करने वाले मिल जायेंगें. अफजल को फांसी नहीं हुयी थी तो वामपंथी कहते थे की अफजल को बासमती की बिरयानी खिलाने में देश के मेहनतकशों का पैसा जाया किया जा रहा है. जब फांसी हुयी तो सीताराम येचुरी कहते हैं की ये इन्साफ के साथ पाप हुआ है. अब सही क्या है? बीजेपी का कहना था कि अफजल सोनिया का दामाद है इसलिए नहीं लटकाया जब लटका दिया तो कह रहें हैं की चुनावी फायदा लिया है? पता नहीं किस सोच के साथ जीते हैं हम? मानवाधिकार कार्यकर्ता भी एक द्वैत चरित्र रखते हैं जब आतंकवादी देश में लोगों की जान लेते हैं तो कोई फर्क नहीं पड़ता है इन सगठनों को, लेकिन जब किसी अपराधी को फांसी हो तो आन्दोलनरत हो जातें हैं. क्या ये देश हित में है? क्या ये देश के खिलाफ चरमपंथ नहीं हैं? आज कश्मीर में एक वर्ग फिर से आंदोलित है की अफजल को फांसी हो गयी लेकिन जब देश में आतंकी किसी की जान ले लें तो इनमें से कितने लोग बोलतें हैं? भाजपा खुद आतंकवादियों को लेकर काफी सहृदय रही है और कांग्रेस को कोसती है. कांग्रेसी नेताओं को दुनिया भर के आतंकवादी नहीं दिख रहें हैं लेकिन हिन्दू चरमपंथी जरूर मिल जाते हैं. अब सवाल ये है की इनमें से देश के साथ कौन है? ये सब तो चरमपंथी ही दिखते हैं जिन्हें देश नहीं अपना स्वार्थ दिखता है. जनता की बात करें तो ये कहीं अफजल की फांसी पर जश्न मनाती है और कहीं इसी बात पर शोक. आतंकवादियों को पनाह भी देती है और कोई घटना घट जाए तो जोरों से सरकार और व्यवस्था को कोसती भी है. अब समय है हम सब देश के बारे में सोचें थोड़े दिनों के लिए चरमपंथ जैसे शब्दों को तिलांजली दे दें.

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