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अहा! चीड़ों का विस्तार, सरसराहट टूटती लहरों की,
रोशनियों का धीमा खेल, अकेली घंटी
सांझ की झिलमिल गिरती है तुम्हारी आंखों में,
गुड़िया,
और भूपटल पर,
जिसमें यह धरती गाती है!
गाती हैं तुममें नदियां और मेरी आत्मा खो जाती है उनमें
जैसा चाहती हो तुम वैसा भेज देती हो इसे जहां चाहे
तुम्हारी उम्मीद के धनुष पर लक्ष्य करता हूं अपनी राह
और एक उन्माद में छोड़ देता हूं अपने तरकश के सारे तीर,
हर तरफ से देखता हूं धुंध से ढंका तुम्हारा कटिप्रदेश,
तुम्हारी चुप्पी पकड़ लेती है मेरे दु:खी समय को;
मेरे चुम्बन लंगर डाल देते हैं
और घरौंदा बना लेती है मेरी एक विनम्र इच्छा
तुम्हारे भीतर, स्फटिक पत्थर-सी तुम्हारी पारदर्शी भुजाओं के पास,
आह! भेद-भरी तुम्हारी आवाज, जो प्रेम करती है
मृत्यु-सूचनाओं के घंट-निनादों से, और उदास हो जाती है
अनुगूंजित मरती हुई शाम में!
एक दुर्बोध समय में, इस तरह मैंने देखा खेतों के पार,
गेहूं की बालियों को राहदारी करते हुए हवा के मुख में।
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