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कल रात एक तो टीवी पर कोई अच्छी फिल्म आ नहीं रही थी, स्पोर्ट्स चैनलों पर भी कुछ खास नहीं था और दूसरी तरफ हमारे न्यूज चैनल अन्ना को लेकर बैठ गए थे जैसे अन्ना और लोकपाल इन्हें खाना देने आ रहे हों. ओह सॉरी, टीआरपी की भूख मिटा रहे होंगे न्यूज चैनल वाले. लेकिन एक बात देखकर बड़ी हैरानी हुई कि आखिर अन्ना को इतना समर्थन मिल कैसे रहा है.
कुछ महीने पहले जंतर-मंतर पर मात्र पांच लोग भूख हड़ताल पर बैठे थे जिनकी तरफ देश की आवाम ने अपना हाथ बढ़ा दिया. और फिर शुरू हुआ असली खेल. मीडिया ने साथ दिया तो फेसबुक और अन्य सोशल नेटवर्किंग साइटों पर भी तथाकथित जागरुक भारत ने अपनी जागरुकता दिखाई. आनन-फानन में कांग्रेस ने भी लोकपाल बनाने के लिए कमेटी बैठा दी.
अब सरकार झुक गई तो बाबा रामदेव ने सोचा कि मैं भी दूसरा अन्ना हजारे बन जाता हूं और छेड़ दिया काले धन और भ्रष्टाचार के खिलाफ अपना मोर्चा. बेचारे भूल गए कि जिनके घर कांच के होते हैं उन्हें दूसरों के घरों पर पत्थर नहीं मारने चाहिए. सरकार और मीडिया ने थोड़ी हवा क्या दे दी बाबा रामदेव चढ़ गए रामलीला मैदान के मंच पर. सरकार ने भी सोचा कि क्या बार बार का ड्रामा है, पहले अन्ना और अब यह, इसलिए पहले तो एयरपोर्ट पर अपने तीन रणबांकुरों को भेजा कि समझा दो बाबा को वरना….बात एयरपोर्ट पर नहीं बनी तो होटल के बंद कमरे में हुई एक डील. डील के मुताबिक सब कुछ पूर्व नियोजित किया गया. बाबा रामदेव की दो-चार मांगें मान कर सरकार ने उन्हें बाहर जाने के लिए कहा. पर बाबा रामदेव को अपनी राजनीति चमकानी थी सो बैठ गए मंच पर. अब रात के बारह बजे ना जानें हमारी सभ्य दिल्ली पुलिस, जिसे आराम करना बेहद पसंद है, उसे डंडा लेने की क्या पड़ी या किसने डंडा कर दिया कि रात को ही भरे हुए रामलील मैदान पर आंसू गैस और डंडों से लोगों को भगाना शुरू कर दिया. और तो और बाबा रामदेव की तो ऐसी हालत कर दी कि बेचारे को सूट-सलवार पहनना पड़ा. खैर यह तो बात थी बाबा रामदेव की.
भारत में दो चीजें बात-बात पर मिल जाती हैं और वह हैं सलाह और सरकार की तरफ से कमेटी की घोषणा. सरकार के पास कमेटियां तो थोक के भाव पड़ी हैं जब जरूरत होती है निकाल लेती है और रामबाण की तरह इस्तेमाल कर लेती है. यहां भी वही हश्र हुआ जो देश की अधिकतर कमेटियों का हुआ. कमेटी ने अन्ना को साइड में किया और जैसा खुद को भाया वैसा ही लोकपाल बना कर संसद में ला खड़ा किया.
सरकार को लगा कि अन्ना गन्ना खाने में मस्त रहेंगे पर ऐसा हुआ नहीं और अन्ना ने आवाज लगाई कि 16 अगस्त को आजादी के दूसरे दिन से ही दूसरी आजादी के लिए तैयार हो जाओ और लोग चले पड़े जेपी पार्क की तरफ. कांग्रेस ने भी शुरू-शुरू में सोचा कि जैसे रामदेव को दो डण्डे मार कर रामलीला मैदान से सटका दिया था कि वह अभी तक दिल्ली में आने से डर रहे हैं वैसे ही अन्ना को भी घर से उठा लेते हैं दो मिनट में सब शांत हो जाएगा. लेकिन यहां तो दांव ही उलटा पड़ा गया. अन्ना ने जेल में ही अनशन को चालू कर दिया. अब बोलो जिस जगह उन्हें पकड़ कर लाया गया था वहीं चालू हो गए अन्ना.
मात्र 21 घंटे में ही कांग्रेस के आलाकमान और गुरु घंटाल मुख्यत: प्रणव मुखर्जी और सिब्बल को समझ आ गया कि ज्यादा हो हल्ला किया और डण्डा किया तो दांव इतना उलटा पडेगा कि बोरिया-बिस्तर बांध कर जाना पड़ेगा सो दे दिए अन्ना की रिहाई के ऑर्डर. पर अन्ना ने बात फिर भी नहीं मानी. अब बात लोकपाल बिल की नहीं बल्कि इस बात की हो गई कि क्या देश में अनशन करना और विरोध करना गैर-कानूनी है? लोगों में सहानुभूति की ऐसी लहर दौड़ी की कल तक जो सरकार अन्ना के खिलाफ बल इस्तेमाल करना चाहती थी वह उनकी सभी मांगें मानने को तैयार है और कह रही है कि यह देश अन्ना का वह जो करना चाहें करें और गेंद डाल दी दिल्ली पुलिस के पाले में.
अब देखते हैं यह हाई वोल्टेज ड्रामा किस तरफ जाता है या हमेशा की तरह भुलक्कड़ भारतीय जनता इसे आसानी से भूल जाती है.
वैसे मैं अन्ना हजारे का समर्थन करता हूं पर इस बात पर भी जोर देता हूं कि भ्रष्टाचार कम करने या दूर करने में लोकपाल किसी काम का नहीं है. हमारे यहां पहले ही तीन-तीन शाखाएं शासन-प्रणाली को सुचारु रुप से चलाने के लिए बनाई गई हैं और ऊपर से एक और को उन सब के ऊपर रखना कहां तक सही है.
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