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मैं सरिता प्रेम की देखे हैं मैने लोग बहुत मजबूर और रोते हुए
मैं सीता राम की देखा हैं मैने अहंकार रावण का चूर होते हुए
चलती हूँ मिलाकर कदम सबकी मैं साथी बनकर
अंधेर आशियानो में जलती हूँ दिए की मैं बात्ती बनकर !!
देखे हैं सपने मैने आसमान तक
लड़ूँगी हंसकर मैं आखरी इम्तिहान तक
आगाज़ हैं अभी मेरा अंजाम बहुत सुनहरा होगा
अधूरी ना आरजू होगी कोई ख्वाब हर पूरा होगा
मैं हवा हूँ हुनर हैं मुझमे खुद को बदलने का
मैं पतंगा हूँ शोक मुझे हैं आग में जलने का
हैं मजबूत चट्टानो सी मेरी आशा
क्योकि मुझे पता हैं धैर्य की परिभाषा
आएगी कामयाबी एक रोज सजकर दुल्हन सी
होंगे शरीक सब लोग बाराती बनकर
अंधेर आशियानो में जलती हूँ दिए की मैं बात्ती बनकर
चलती हूँ मिलाकर कदम सबकी मैं साथी बनकर !!
देखे हैं मैने कपड़े कफ़न में बदलते हुए
देखा हैं मौत को मैने भीड़ में चलते हुए
समय का बदतर ये दौर चल रहा हैं
आतंक का सैलाब हर और चल रहा हैं
देखती हूँ सब कुछ फिर भी मैं खामोश रहती हूँ
दोषी हूँ मैं भी फिर भी खुद को निर्दोष कहती हूँ
इंसानियत अंदर की मेरी मुझसे ही शर्मा जाती हैं
वो क्या आबाद हो जब दीवारें ही घर खा जाती हैं
वजूद अगर खुद का रखना है काबिज
बरस जाओ सब एक साथ बादल कोई बरसाती बनकर
अंधेर आशियानो में जलती हूँ दिए की मैं बात्ती बनकर
चलती हूँ मिलाकर कदम सबकी मैं साथी बनकर !!
देखना हैं मुझे फिर से पंछी आज़ाद उड़ते हुए
धर्म और इंसान को आपस में जुड़ते हुए
रिश्तो की उलझी डोर को सुलझाना चाहती हूँ
नफ़रत के माथे पे तिलक प्यार का लगाना चाहती हूँ
मुझे फिर वही सच्चाई,धर्म,प्रेम और ईमान चाहिए
हर चीज़ में आगे मुझे मेरा हिन्दुस्तान चाहिए
ढालकर लब्जों में सच्चे दिल के मैं ज़ज्बात कहती हूँ
दिन को दिन कहती हूँ तो रात को रात कहती हूँ
हो सकता हैं संभव सब जिए अगर सब
एक ही मज़हब और एक ही जाती बनकर
अंधेर आशियानो में जलती हूँ दिए की मैं बात्ती बनकर
चलती हूँ मिलाकर कदम सबकी मैं साथी बनकर !!
जितेंद्र अग्रवाल “जीत”
मुंबई..मो. 08080134259
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