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स्मृतियों का दर्पण-एक शब्द श्रदांजलि पापा को…

शब्द बहुत कुछ कह जाते हैं...
शब्द बहुत कुछ कह जाते हैं...
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स्मृतियों के दर्पण से झाँकता हैं तन्हा मन जब कभी अतीत में
खुशियाँ सारी शून्य प्रतीत होती हैं हार लगती हैं हर जीत में
धारा अश्रुओं की मेरे साहस की दहलीज लाँघ लेती हैं
नियति की अनहोनी मेरे मासूम हाथों को बाँध देती हैं
नम नयनों के नयनपटल पर अंकित एक आकृति होती हैं
शायद कुछ बोलना हो मुझसे प्रतीत ऐसे तस्वीर पापा की होती हैं
संघर्षमय संकटमय समय के चित्र जब सामने आते हैं
भावनाओं के भयंकर धक्के हृदय को झकझोर जाते हैं
देखता हूँ उन्हे जब मुश्किलों की शृंखला में बँधे होकर भी हँसते हुए
शून्य मुझे अपना अस्तित्व लगता हैं
दबते गये दुख की दीवार तले भाग्य का लेखा मानकर
अमिट असरदार अदभुत उनका व्यक्तित्व लगता हैं
हैं जीवित जेहन में बचपन अभावों का
जब पैसे कमाने पापा दुकान जाते
और शाम थके लौटकर आते थे
उनका हँसना शायद झूठ था
या थी शायद नासमझी हमारी
जो सच्चाई कभी हम समंझ नही पाते थे
बहन थी बड़ी मुझसे मगर बड़ी वो भोली थी
जानती थी अंतर अमीरी ग़रीबी का
ख्वाहिशों की खिड़कियाँ कभी ना उसने खोली थी
भाई था छोटा सबको जो एक समझता था
धरती को माँ कहता और पिता खिलोनों को
लिखा कहाँ विधि का वो लेख समझता था
संघर्ष की शृंखला में साल बदलते जाते थे
हम टूटी पाटी पर पढ़ते लिखते
पहली से दूसरी और दूसरी से तीसरी में आ जाते थे
हर्षाता कितना हमारा उतीर्ण होना पापा को
उतीर्ण की खुशी में मिठाई महँगी बँटवाते थे
अब जब असली गिनती सीखे हैं
तब मालूम होता हैं पापा हमे कैसे पढ़ाते थे
सिखाएँ संस्कार सदाचार तो पापा ने हमे
पढ़ाने बेकार ही शिक्षक किताबें मँगवाते थे
कितने आशावादी थे पापा भुलाकर अपना वर्तमान
भविष्य की खातिर हमारे कितना कष्ट उठाते थे
होली के रंग पिचकारी दीवाली के पटाखे होते थे
बच्चों की खुशी खातिर तकलीफ़ों के तमाशें होते थे
खुद के पुराने वस्त्र नये हमारे कपड़े होते थे
जाने कितने इम्तिहान पापा के कड़े होते थे
खुद पसीना करके गर्मी में कुलफी हमे खिलाते थे
सर्द शाम में काँपते हाथ कभी वो मूँगफली लाते थे
छोटी जेब वाला वो हृदय कितना विराट था
तकलीफें जिसमे अपनी वो सारी छिपाते थे
भर आता मन जब भर भर डोर चरखी लोग पतंग उड़ाते थे
थे अंतर्यामी कितने देखकर दौड़ता मुझे पतंग पापा ले आते थे
भूलकर अमावस अभावों की करवा चौथ याद रखते
गणगौरी तीज पर खिलाने कचोरी मेले में ले जाते थे
पोंछते मुँह हमारा हँसकर हाथ से
गोला बर्फ का हम जब चूस चूस कर खाते थे
नटखट नन्हे मासूम कितने शेतान थे हम
पापा को जो रोज कितना सताते थे
बदली परिस्थितियाँ जब समय परिवर्तन के साथ
सुहानें वक़्त ने सुधारें जब बिखरें घर के हालात
खुद के पाँवों पर जब मैं खड़ा हो गया
पापा का बेटा “जीत” अब जब बड़ा हो गया
सोचा कुछ हँसी हाथों से पापा के अधरों पर धर दूं
मुश्किलों की शृंखला से अब आज़ाद उन्हे कर दूं
खुशियों की चेहरे पर तनिक उनके जो हलचल होने लगी थी
जेब फटी सिल गई मगर देह दिनो दिन दुर्बल होने लगी थी
समय बदला मगर भाग्य उनका बदल नही पाया
आख़िर असर लंबा कोई दवा का चल नही पाया
किस्मत एक रोज फिर मुझसे विश्वासघात कर गयी
सोची नही जो कभी वो ही अनहोनी बात कर गयी
जज्बातों का जहर पीकर जबरन खुद को समझाना पड़ा
अंगुली पकड़ चला जिनकी उनको कंधों पर ले जाना पड़ा
उम्र छोटी थी मेरी मगर इम्तिहान बहुत बड़ा था
सामने लंबा रास्ता कठिन और अकेला खड़ा था
चलते चलते नन्हे कदमों से यहा तक आया हूँ
हूँ खाली खाली जैसे पीछे बहुत कुछ छोड़ आया हूँ
हो राह कोई जीवन का सारांश बस एक ही निकलता हैं
हारता हैं रुकने वाला जीतता हैं वो जो हर हाल में चलता हैं
हैं पास मेरे जो आज नम आँखों से पापा को अर्पण करता हूँ
हो गयी देर बहुत दूर आँखों से अब स्मृतियों का दर्पण करता हूँ !!

जितेंद्र अग्रवाल “जीत”
मुंबई..मो. 08080134259

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