- 422 Posts
- 640 Comments
एक समय था जब खेती को हमारे देश में सबसे अच्छा व्यवसाय माना जाता था, लेकिन धीरे-धीरे उसकी यह छवि बिगड़ती चली गई। आज स्थिति यह है कि कोई खेती करना ही नहीं चाहता। खेती को हर तरह से पिछड़ेपन का पर्याय मान लिया गया है और इसीलिए दुनिया के पैमाने पर देखें तो हम पाते हैं कि भारतीय खेती लगातार पिछड़ती चली जा रही है। हम विकसित देशों के किसानों का मुकाबला कर पाने की स्थिति में अपने को बिलकुल नहीं पाते। इसके लिए मूल रूप से जिम्मेदार सरकारी नीतियां ही हैं। खेती का काम दिन-प्रतिदिन अधिक से अधिक कठिन होता जा रहा है। लागत बढ़ती जा रही है और आमदनी घटती जा रही है। अगर किसानों की संवेदना के निकट जाकर देखें तो मानना ही पड़ेगा कि सरकार को उनकी परवाह नहीं है। यह बात सूखा राहत बंटवारे की स्थिति देखकर भी जाहिर हो गई है। इसके लिए हरियाणा, पंजाब और पश्चिमी उत्तर प्रदेश को नजरअंदाज कर दिया गया है। सूखा प्रभावित राज्यों के दौरे पर निकले कृषि मंत्री पवार की सूची में इन राज्यों के नाम ही नहीं हैं। राष्ट्रीय उपज में इन राज्यों की हिस्सेदारी और इन दिनों मौसम के हालात को देखते हुए इस फैसले को किसी भी तरह सही नहीं ठहराया जा सकता। अगर बरसात न हो तो खेती कर पाना कहीं भी संभव नहीं होता। केवल इसलिए नहीं कि कृत्रिम साधनों से सिंचाई करने से फसल की लागत बहुत बढ़ जाती है, बल्कि सच यह है कि उनका स्वाभाविक विकास नहीं हो पाता है। यह बात केवल अनाज-दाल आदि की फसलों ही नहीं, बागवानी के साथ भी है। जब तक बरसात का पानी न पड़े फलों में भी उनका प्राकृतिक स्वाद तक नहीं आ पाता है।
फसलों की न तो पूरी पैदावार मिल पाती है और न उपज में वह गुणवत्ता ही होती है। इस विषय पर न तो कोई विशेषज्ञ कमेटी बैठाने की जरूरत है और न किसी सूक्ष्म वैज्ञानिक परीक्षण की कि पूरे पश्चिमी उत्तर प्रदेश, दिल्ली, हरियाणा और पंजाब में बारिश की स्थिति क्या रही है। राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली से सटे ही इन क्षेत्रों में बारिश न होने और कड़ी धूप के चलते कैसी त्राहि मची हुई है, यह जानने के लिए कोई अतिरिक्त प्रयास करने की आवश्यकता नहीं है। इसके बावजूद कृषि मंत्री ने इन इलाकों को नजरअंदाज कर दिया। इससे यह समझा जा सकता है कि व्यवस्था किस दिशा में जा रही है। जिम्मेदार लोगों के लिए देश की जरूरतों से ज्यादा महत्वपूर्ण क्षेत्रीय राजनीति हो गई है। पिछले दिनों केंद्रीय कृषि मंत्री शरद पवार और ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश सूखा प्रभावित क्षेत्रों के दौरे पर निकले तो उनकी सूची में केवल महाराष्ट्र, कर्नाटक, गुजरात और राजस्थान के नाम ही शामिल किए गए। बारिश की स्थिति इन राज्यों में भी अच्छी नहीं है, यह मानने में कोई हर्ज नहीं है। लेकिन यह एक सच्चाई है कि पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश को भी सूखा राहत की जरूरत इनसे कम नहीं है। सच तो यह है कि पूर्वी उत्तर प्रदेश में भी इस साल बरसात समय से नहीं हुई है। धान का बेहन तैयार करने का जो समय होता है, उस समय बारिश की सख्त जरूरत होती है।
दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि उस वक्त बारिश अधिकतर इलाकों में हुई ही नहीं। किसानों को जैसे-तैसे सिंचाई करके बेहन तैयार करना पड़ा। रोपाई के समय भी बरसात की स्थिति बहुत अच्छी नहीं रही है। अब जब फसलें खड़ी होने का समय आया तो कई इलाकों में बाढ़ आ गई है। यह स्थितियां किसानों के लिए अच्छी नहीं हैं। सबसे मुश्किल बात यह है कि जिन इलाकों में सिंचाई के लिए डीजल की जरूरत होती है वहां किसानों की जरूरत के मुताबिक समय पर डीजल नहीं मिल पाता और जहां आम तौर पर लोग सिंचाई के लिए बिजली पर निर्भर हैं, वहां बिजली नहीं मिलती। वैसे तो बिजली की आपूर्ति की स्थिति लगभग उत्तर भारत में ही अच्छी नहीं है। इसी बीच एक सप्ताह के भीतर ही दो बार ग्रिड फेल्योर ने यह स्थिति और खराब कर दी। शहरों के लिए तो आनन-फानन में बिजली व्यवस्था ठीक कर दी गई, लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में इसकी स्थिति अभी भी आवश्यकता के अनुकूल नहीं सुधर पाई है। पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश इन तीनों ही राज्यों में बिजली की स्थिति कभी भी अच्छी नहीं रही है। यह और दुर्भाग्यपूर्ण बात है कि यह स्थिति सुधारे जाने के लिए आवश्यक और प्रभावी कदम भी नहीं उठाए जा रहे हैं। डीजल के भरोसे सिंचाई इतनी महंगी हो जाती है कि आम किसान के लिए लागत निकालना भी मुश्किल हो जाता है। भला इस तरह खेती कैसे हो सकती है और अगर खेती ही सही नहीं हो पाई तो खाद्य सामग्रियों के मूल्यों पर नियंत्रण कैसे रखा जा सकेगा? इसमें कोई दो राय नहीं है कि किसानों के साथ नाइंसाफी का मतलब पूरे देश की आम जनता के साथ नाइंसाफी है। जहां पहले से ही लोग खाद्य सामग्रियों के मूल्यों में लगातार बढ़त से परेशान हों, वहां अगर फसल भी अच्छी न हो और उसके बाद उपज के भंडारण की व्यवस्था भी ठीक न हो सके तो आगे हालात कैसे होंगे, यह आसानी से सोचा जा सकता है। इतना ही नहीं, पूरे देश में किसानों की हालत पर भी अलग से कुछ कहने की जरूरत नहीं है। कहीं किसान कर्ज से दब कर आत्महत्याएं कर रहे हैं तो कहीं ऐसे ही भुखमरी के शिकार हो रहे हैं। इसके बावजूद खेती की बेहतरी के लिए समय के अनुकूल कोई प्रभावी उपाय नहीं किए जा रहे हैं।
बाढ़ और सूखा जैसी स्थितियों को अक्सर झेलना उनकी मजबूरी है और इनसे उन्हें बचाने के लिए भी कोई ठोस कदम नहीं उठाए जा रहे हैं। जरूरत इस बात की है कि राष्ट्रीय कृषि नीति की नए सिरे से समीक्षा की जाए और इसे समय के अनुरूप बनाने की कोशिश की जाए। इस बात का प्रयास किया जाए कि कम से कम लागत में किसानों को अधिक से अधिक लाभ पहुंचाया जा सके और साथ ही पूरे देश को कम कीमत पर खाद्य पदार्थ भी मुहैया कराए जा सकें। निश्चित रूप से यह कठिन काम है, लेकिन कई विकसित देशों में इस दिशा में काम किए गए हैं। यह भी सच है कि उनकी और हमारी परिस्थितियां भिन्न हैं। हम उनके मॉडल को बिलकुल उनके ही रूप में नहीं अपना सकते। बेहतर होगा कि हम अपने देश की परिस्थितियों का ठीक-ठीक अध्ययन करें और उनके अनुरूप अपनी समस्याओं के समाधान निकालें। उन सभी पक्षों को इसमें शामिल किया जाए, जिनकी जरूरत खेती के लिए होती है। चाहे वे उर्वरक या बीज के मामले हों, या फिर बिजली, पानी और डीजल के। सबको ध्यान में रखकर और एक ही दायरे में लाकर समग्र कृषि नीति बनाई जानी चाहिए। इसके लिए यह भी जरूरी है कि हम क्षेत्र और पार्टी जैसी सस्ती लोकप्रियता वाले दुराग्रहों से मुक्त हों। जब तक इस संदर्भ में प्रगतिशील सोच नहीं अपनाई जाती, किसानों और देश की भलाई संभव नहीं है।
लेखक निशिकांत ठाकुर दैनिक जागरण हरियाणा, पंजाब व हिमाचल प्रदेश के स्थानीय संपादक हैं
Agriculture in india 2012, agriculture in india, agriculture jobs, agriculture machine, Dainik Jagran Editorial Articles in Hindi, Jagran Blogs and Articles.
Read Comments