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बमुश्किल दो साल के भीतर चार बड़े आंदोलन। पहले स्वामी रामदेव, फिर टीम अन्ना, फिर रामदेव और अब यह स्वत:स्फूर्त जनांदोलन.. सामूहिक दुष्कर्म के आरोपियों को फांसी देने की मांग को लेकर। इसके पहले कभी ऐसी स्थिति नहीं आई कि नई दिल्ली में धारा 144 लगाई जाए, जगह-जगह बैरिकेडिंग की जाए और शहर को छावनी में तब्दील कर दिया जाए। पर अब स्थिति यहां तक पहुंच गई तो लगता है कि पानी सिर से ऊपर गुजरने लगा है। भारत की जनता आसानी से अपना धीरज नहीं खोती। खराब से खराब स्थितियों में भी इसे अपना धीरज बनाए रखने के लिए जाना जाता है। इसने चरमसीमा तक महंगाई झेली और झेले जा रही है, बेरोजगारी झेल रही है, भ्रष्टाचार झेल रही है, आतंकवाद और अराजकता झेल रही है, लेकिन अब.. यह बहन-बेटियों की इज्जत पर हाथ डालना और उसमें भी दरिंदगी की सारी हदें पार कर जाना.. आखिर कहां तक कोई बर्दाश्त करेगा? बर्दाश्त की सारी हदें जब पार हो गई और नेताओं ने जनता के विश्वास की सारी हदें तोड़ दीं तो लोगों के पास चारा भी आखिर क्या था? वाकई अब तो न केवल सरकार, बल्कि व्यवस्था के साथ-साथ पूरा देश मुश्किल में फंस गया है।
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युवा भावनाओं के उबाल का यह दौर वास्तव में जिम्मेदार लोगों के धीरज और संयम की परीक्षा का दौर है। विपक्ष से लेकर सरकार तक सभी युवाओं के आक्रोश को सही ठहरा रहे हैं। किसी में इतना साहस नहीं है, जो अपना दामन बचाने के लिए औपचारिक तौर पर भी यह कहने का साहस जुटा सके कि युवाओं का इतना गुस्सा करना गलत है। कोई कहे भी कैसे? यह केवल किसी एक कारण से तो है नहीं। गौर से देखा जाए तो जो दरिंदगी हुई है, उसके पीछे भी केवल एक ही कारण नहीं है। इसके पीछे भी कई कारण हैं और इसके लिए जिम्मेदार सिर्फ वे दरिंदे ही नहीं हैं। यहां तक कि दरिंदों के साथ-साथ केवल पुलिस तक को भी जिम्मेदार ठहराने से काम नहीं चलेगा। असलियत यह है कि इसके लिए हमारी पूरी व्यवस्था जिम्मेदार है। इस व्यवस्था में पुलिस भी शामिल है, परिवहन विभाग, प्रशासन और शासन भी। असल में यह सबकी अनदेखी की प्रवृत्ति का नतीजा है। दिल्ली में दुष्कर्म अब कोई एक दिन की बात नहीं है। यहां आए दुष्कर्म की घटनाएं होती रहती हैं। कभी किसी युवती के साथ तो किसी नाबालिग लड़की के साथ। यहां तक कि अबोध बच्चियां और बुजुर्ग महिलाएं भी यहां सुरक्षित नहीं हैं। रास्ते, सार्वजनिक स्थलों और सुनसान जगहों की तो बात छोडि़ए, खुद अपने घरों में भी स्ति्रयां सुरक्षित नहीं हैं। बेशक, इसके लिए बहुत हद तक हमारे समाज का नजरिया जिम्मेदार है और इसका स्थायी समाधान भी इसके बदलने एवं सुधरने में ही निहित है। इसका यह मतलब भी नहीं कि हमारे समाज का हर पुरुष दुष्कर्मी मनोवृत्ति और स्त्री के प्रति उपभोक्तावादी नजरिया रखने वाला है। वास्तव में ऐसे लोग समाज में बहुत थोड़े से हैं, लेकिन उनके बेहिसाब हल्ले के बीच शरीफ लोगों की आवाज दब जाती है।
आम लोगों की आवाज दब इसलिए जाती है, क्योंकि वे उस तरह छल-प्रपंच नहीं कर सकते जैसे असामाजिक तत्व करते हैं। वास्तव में फरेब उनकी ही जरूरत भी है। शरीफ आदमी को न तो इसकी जरूरत होती है और न वह यह सब सीखता है। यही वजह है कि वह अक्सर इनके अत्याचार का शिकार होता रहता है। उसे अराजक तत्वों से बचाने के लिए ही सरकार की जरूरत होती है और सरकार अपना काम ठीक से कर सके, इसके लिए ही पुलिस-प्रशासन और उसके पूरे अमले की जरूरत होती है। अगर यह अमला ठीक से काम नहीं कर रहा है तो यह सरकार की जिम्मेदारी है कि उसे समझा-बुझा कर या सख्ती करके रास्ते पर ले आए। यहां हालात बिलकुल उलट गए हैं। अराजक तत्व तो खुलेआम घूम-घूम कर वारदात कर रहे हैं और बेचारे आम जन डरे-सहमे केवल अपनी जान बचाने में लगे हैं। वह अपने धन-मान की रक्षा के लिए कहां जाएं, किससे गुहार लगाएं। पुलिस सुनती नहीं है, उसके बारे में आम धारणा यह है कि अपराधियों से मिली हुई है। इस धारणा को गलत साबित कर सके, ऐसी कोई घटना जल्दी सामने आती नहीं है। अपराधी कहीं से कुछ भी करके निकल जाते हैं और पुलिस उनका कुछ नहीं करती। यहां तक कि राष्ट्रीय राजधानी की व्यस्त सड़कों पर नियम-कानून की धज्जियां उड़ाती एक बस घंटों चलती रही, उसमें एक लड़की की इज्जत छह दरिंदे मिल लूटते रहे, उसके साथ वे वह सब करते रहे जिससे मनुष्यता तो क्या दानवता तक शरमा जाए और हमारी पुलिस सोती रही। आखिर है किसलिए यह पुलिस? अगर पुलिस की यही सीमा है तो फिर उसकी उपयोगिता और जरूरत क्या है? क्यों हम उसका बोझ उठाएं? वस्तुस्थिति यह है कि पुलिस केवल वीवीआइपी सुरक्षा का एक औजार बन कर रह गई है।
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आम जनता और उसके जान-माल या मान-सम्मान की सुरक्षा का मुद्दा पुलिस के लिए हाशिये से भी बाहर हो गया है। सुरक्षा की उम्मीद करना तो बहुत दूर की बात है, आम आदमी के लिए एक एफआइआर लिखाना भी बहुत बड़ी बात है। पुलिस कानून में सुधार के लिए खुद सरकार द्वारा गठित आयोग की सिफारिशें ही वर्षो से लंबित पड़ी हैं और उस दिशा में कोई विचार तक नहीं हो रहा है। जाहिर है, पुलिस सुधर नहीं है, यह कोई समस्या नहीं है। समस्या यह है कि पुलिस को सुधारने की दिशा में कोई प्रयास ही नहीं हो रहा है। जिम्मेदार लोग चाहते ही नहीं हैं कि पुलिस की व्यवस्था में कोई सुधार किया जाए। वे उसे सिर्फ अपने इशारों पर नाचने वाली कठपुतली बनाए रखना चाहते हैं। इसका एक बड़ा प्रमाण यह है कि भारतीय संविधान में अब तक 97 संशोधन किए जा चुके हैं, लेकिन पुलिस कानून में एक मामूली फेरबदल वह नहीं कर पा रही है। सच तो यह है कि आक्रोश केवल लड़कियों की असुरक्षा को लेकर नहीं है। यह आक्रोश केवल पुलिस की निरंकुशता को लेकर भी नहीं है। वास्तव में यह आक्रोश है पूरी व्यवस्था की निरंकुशता को लेकर। युवाओं के इस गुस्से में कई तरह के गुस्से जुड़े हुए हैं, जो अब उनसे दबाए दब नहीं रहे हैं। इस गुस्से में प्रशासन की बेपरवाही भी शामिल है, तमाम सरकारी विभागों में व्याप्त भ्रष्टाचार भी है, राजनेताओं की निरंकुशता भी है और जाने क्या-क्या है। सरकार को चाहिए कि अतीत के अपने ही अनुभवों से सबक ले। मसले को भरमाने-भटकाने के बजाय सही समाधान की दिशा में सोचे। कानून सिर्फ बनाए ही नहीं, उनका ठीक से अनुपालन भी सुनिश्चित करे। युवाओं को भी यह बात ध्यान रखनी चाहिए कि कानून रातो-रात नहीं बन जाते। उसकी पूरी प्रक्रिया है और उसमें समय लगता है। जोश में होश खोना हमेशा नुकसानदेह होता है।
लेखक निशिकांत ठाकुर दैनिक जागरण हरियाणा, पंजाब व हिमाचल प्रदेश के स्थानीय संपादक हैं
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