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यही संकल्प लोकपाल विधेयक पर क्यों नहीं

संपादकीय ब्लॉग
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आज भारतीय लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ा अनुष्ठान येन केन प्रकारेण महिला आरक्षण विधेयक को पारित करवाना है. इसके लिए राजनीतिक दलों में मची आपा-धापी को देखकर आमजन यही समझ रहा होगा कि देश और समाज के सबसे बड़े हितैषी राजनीतिक दल और उनके पुरोधा हैं. देश को संचालित करने वाले ये दल उस समय सवालों के कटघरे में खड़े होते हैं जबकि ऐसे कोई नीति और कानून बनाने का प्रश्न खड़ा होता है जो उनके भ्रष्टाचार पर प्रभावकारी अंकुश लगाता हो.

 

बात हो रही है उस बहुप्रतिक्षित लोकपाल विधेयक की जो आधी शताब्दी से सामुहिक सहमति की बाट जोह रहा है. हर बार यही दल इस विधेयक के पारित होने में अड़चनें पैदा करते रहे हैं. ये दल अपनी सुविधानुसार किसी भी कानून को लागू करने में दिलचस्पी लेते हैं और ऐसे किसी भी मुद्दे को नहीं उठने देना चाहते जो उनकी व्यापक स्वतंत्रता पर अंकुश लगाता हो.

 

प्रथम प्रशासनिक सुधार आयोग ने साठ के दशक में ही स्वीडन की तर्ज पर भारत में भी एक ऐसे तंत्र के स्थापना की सिफारिश की थी जो नेताओं और मंत्रियों के ऊपर कड़ी निगाह रखता हो. यह तंत्र जिसे लोकपाल कहा जाना था वह कैबिनेट सहित सभी सांसदों के लिए एक ऐसे प्रहरी का कार्य करता जो कि किसी और माध्यम से संभव नहीं हो पाता है.
लोकपाल विधेयक को पारित कराने की हर कोशिश हर बार नाकामयाब रही और जब-जब इस विधेयक को संसद में रखा गया उसका हश्र बुरा ही रहा.

 

अटल बिहारी बाजपेयी के नेतृत्व में जब एनडीए की सरकार थी तब भी इसे पारित कराने की कवायद की गयी किंतु परिणाम वही ढाक के तीन पात रहे. हालांकि उस विधेयक में पहले के विधेयकों के सापेक्ष ज्यादा कठोर प्रावधान रखे गये थे और प्रधानमंत्री को भी उसके दायरे में लाया गया था. यूपीए के नेतृत्व वाली सरकार ने आधे-अधूरे मन से इस दिशा में कार्य करने की बात कही लेकिन नतीजा पहले जैसा ही रहा.

 

आज जिस प्रकार से लगभग सभी राजनीतिक दल महिला आरक्षण के मुद्दे पर एकमत हो चुके हैं क्या वही संकल्प लोकपाल के मसले पर भी दिख सकेगा?

 

शायद नहीं, क्योंकि लोकपाल संस्था का गठन कर वे कोई समस्या नहीं मोल लेना चाहेंगे. इन्हें अत्याधिक स्वतंत्रता का उपभोग करने की आदत लग चुकी है और वे ऐसी कोई नीति नहीं लाना चाहते जिससे उनके अवैधानिक कृत्य कानून के दायरे में आ सकें. सार्वजनिक पदों पर बैठे लोगों का सभी कार्य पूर्ण रूपेण पारदर्शी होना ही वास्तविक लोकतंत्र की पहचान है जबकि भारत में यह पारदर्शिता कहीं नहीं दिखती.

 

कुछ राज्यों में लोकायुक्त संस्था का गठन तो किया गया किंतु वे एक प्रकार से नख-दंत विहीन संगठन ही बन कर रह गये और अधिकांश राज्यों में लोकायुक्तों की सिफारिशों को एक कोने में ढकेल दिया जाता है. आज जबकि देश की सबसे बड़ी जरूरत है कि शासन तंत्र स्वच्छ और पारदर्शी तथा भ्रष्टाचार मुक्त हो, ऐसे में अन्य मुद्दों को सामने लाकर लोकपाल जैसे अति महत्वपूर्ण और प्राथमिकता वाले मसले को पीछे धकेल दिया गया है.

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