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रक्षा खरीद में दलाली का एक और मामला केंद्र सरकार की साख पर प्रश्नचिह्न लगा रहा है। अति विशिष्ट व्यक्तियों के इस्तेमाल के लिए 12 हेलीकॉप्टरों की खरीद में दलाली के लेन-देन के प्रारंभिक प्रमाण सामने आने के साथ ही इटली की कंपनी फिनमैकेनिका के मुख्य कार्यकारी अधिकारी की गिरफ्तारी से यही स्पष्ट हो रहा है कि अपने देश में रक्षा सौदे बिचौलियों के बिना हो ही नहीं सकते और अब तो इस पर यकीन न करने का कोई कारण नहीं कि इस तरह के सौदे अनेक लोगों के लिए अपनी जेबें भरने का अवसर साबित होते हैं। बात चाहे राजीव गांधी के कार्यकाल में हुए बोफोर्स तोप सौदे की हो या पनडुब्बी खरीद की या फिर पूरी रक्षा खरीद प्रक्रिया को सवालों के घेरे में ला देने वाले तहलका मामले की-इन सबसे यही साबित होता है कि रक्षा उपकरणों की खरीद में भ्रष्टाचार की जडे़ बहुत गहरी हो चुकी हैं। वीवीआइपी हेलीकॉप्टरों की खरीद में दलाली का मामला सामने आने के बाद न केवल केंद्र सरकार की साख पर बन आई है, बल्कि रक्षा प्रतिष्ठान को भी अच्छा-खासा नुकसान होने जा रहा है।
दबाव में घिरी केंद्र सरकार ने न केवल हेलीकॉप्टर खरीद में दलाली के लेन-देन के आरोपों की सीबीआइ जांच के आदेश दे दिए हैं, बल्कि इस सौदे को रद करने की प्रक्रिया भी शुरू कर दी है। यह हैरत की बात है कि इस मामले में बिचौलियों की भूमिका की बात लगभग एक वर्ष पहले ही सामने आ गई थी, लेकिन केंद्र सरकार ने इसकी तह में जाने की आवश्यकता नहीं समझी। उसकी नींद तब टूटी जब इटली में गिरफ्तारी हो गई। अब रक्षामंत्री यह भरोसा दिला रहे हैं कि हेलीकॉप्टरों की खरीद के लिए फिनमैकेनिका की सहायक कंपनी अगस्ता वेस्टलैंड को जो रकम दी गई है उसकी वसूली की जाएगी। फिलहाल तो ऐसा होना मुश्किल नजर आ रहा है। इटली में चल रही जांच के मुताबिक शक की सुई पूर्व वायुसेना प्रमुख एसपी त्यागी के साथ-साथ उनके निकट संबंधियों की ओर भी घूम रही है। जिन तीन त्यागी बंधुओं की भूमिका संदेह के घेरे में है वे सभी पूर्व वायुसेना प्रमुख के करीबी रिश्तेदार हैं। इन्हीं लोगों ने कथित रूप से उस व्यक्ति को वायुसेना प्रमुख से मिलवाया जिसे इस सौदे का दलाल बताया जा रहा है। हालांकि पूर्व वायुसेना अध्यक्ष ने खुद को निर्दोष बताते हुए सभी आरोपों को खारिज किया है और इस पर जोर दिया है कि यह सौदा उनके सेवानिवृत्त होने के तीन साल बाद हुआ, लेकिन यह सामान्य बात नहीं कि वह पहले ऐसे वायुसेना प्रमुख हैं जो इस तरह के आरोपों का सामना कर रहे हैं। यह समय बताएगा कि सीबीआइ हेलीकॅाप्टर सौदे में दलाली के लेन-देन के आरोपों की तह तक पहुंच सकेगी या नहीं, लेकिन इसमें संदेह नहीं कि बजट सत्र के ठीक पहले विपक्ष के हाथ बोफोर्स सरीखा एक ऐसा मुद्दा आ गया है जिससे सत्तापक्ष रक्षात्मक मुद्रा में है।
सरकार चाहे जो दावा करे, इसके प्रति बहुत आश्वस्त नहीं हुआ जा सकता कि सच्चाई शीघ्र सामने आ जाएगी, क्योंकि अपने देश में बड़े घपले-घोटालों की जांच किसी नतीजे तक मुश्किल से ही पहुंच पाती है और रक्षा खरीद में हुई धांधली के मामलों में तो और भी। रक्षा सौदों के मामले में समस्या यह है कि उनमें पारदर्शिता का घोर अभाव रहता है और इसी कारण बिचौलियों की भूमिका अहम हो जाती है। विश्व के अनेक देशों में रक्षा खरीद में बिचौलियों की भूमिका को स्वीकृति प्राप्त है, लेकिन अपने देश में इसकी मनाही है। अब यह स्पष्ट है कि इस व्यवस्था में तमाम खामियां हैं। भारत जब किसी देश के साथ रक्षा खरीद का सौदा करता है तब तकनीकी पहलुओं के आधार पर सेना के लोग भी संबंधित आपूर्तिकर्ता कंपनी के साथ जुड़ जाते हैं और प्राय: यह देखा गया है कि किसी न किसी कारण सौदे की शर्तो में कुछ न कुछ हेरफेर कर दिया जाता है। वीवीआइपी हेलीकॉप्टरों की खरीद में घोटाला सामने आने के बाद तो ऐसा लगने लगा है कि रक्षा खरीद में कूटनीतिज्ञों और राजनीतिज्ञों से भी बड़ी भूमिका बिचौलियों की होती है। हमारे नीति-नियंताओं को यह अहसास हो जाना चाहिए कि रक्षा सौदों में बिचौलियों की भूमिका को रोक पाना संभव नहीं रह गया है। क्या यह उचित नहीं होगा कि रक्षा सौदों में बिचौलियों के अस्तित्व को स्वीकार कर लिया जाए और ऐसी कोई पारदर्शी व्यवस्था की जाए जिससे सभी के लिए यह जानना सहज हो सके कि रक्षा सौदे में किस बिचौलिये की भूमिका रही और खरीद प्रक्रिया संपन्न कराने के लिए कितना धन दिया गया? हमारे देश के नीति-नियंताओं को केवल इस पर ही चिंतन-मनन नहीं करना चाहिए कि रक्षा खरीद में घपले-घोटाले का सिलसिला थमने का नाम क्यों नहीं ले रहा है, बल्कि इस पर भी सोचना होगा कि क्या एक गरीब देश को इतने महंगे हेलीकॉप्टरों की वास्तव में आवश्यकता थी? जिस देश में आम आदमी की सुरक्षा एक तरह से भगवान भरोसे हो और महिलाओं के लिए सड़कों पर सुरक्षित निकलना मुश्किल होता जा रहा हो वहां अति विशिष्ट लोगों के इस्तेमाल के लिए साढ़े तीन हजार करोड़ रुपये की भारी-भरकम राशि से 12 हेलीकॉप्टर खरीदने का क्या औचित्य? क्या यह बेहतर नहीं होता कि इस धन का इस्तेमाल लोगों को शुद्ध पेयजल, शिक्षा, स्वास्थ्य और दो वक्त की रोटी उपलब्ध कराने के लिए किया जाता? सवाल यह भी है कि हम हथियारों, लड़ाकू विमानों और रक्षा उपकरणों के मामले में आत्म निर्भर क्यों नहीं हो पा रहे हैं? क्या यह विचित्र नहीं कि अंतरिक्ष संबंधी टेक्नोलॉजी एवं मिसाइल निर्माण में तो हम विकसित देशों से होड़ ले रहे हैं, लेकिन एक अदद टैंक बनाने में दशकों खपा दे रहे हैं? यह हास्यास्पद है कि पनडुब्बी, लड़ाकू विमान और यहां तक कि उन्नत किस्म की राइफल बनाने में भी हम फिसड्डी साबित हो रहे हैं।
कहीं ऐसा तो नहीं कि स्वदेशी रक्षा उद्योग की जानबूझकर उपेक्षा की जा रही हो? इससे इन्कार नहीं कि भारत को आधुनिक हथियारों और लड़ाकू विमानों से लैस होने की आवश्यकता है, लेकिन क्या इस पर गहन विचार किया जा रहा है कि पड़ोसी देशों के मुकाबले यह आवश्यकता कितनी वास्तविक है? यह सवाल इसलिए, क्योंकि कई बार हथियारों की जरूरत को कुछ ज्यादा ही प्रचारित किया जाता है। जब ऐसा किया जाता है तो विकसित देश और विशेष रूप से उनकी हथियार कंपनियां एवं उनके एजेंट भी ऐसा माहौल बनाने में लग जाते हैं कि भारत को अमुक-अमुक हथियारों की सख्त जरूरत है। कई बार तो इस जरूरत का हौवा खड़ा कर दिया जाता है। इस सबके बीच यह भी सामने आता रहता है कि कुछ कथित जरूरी रक्षा सौदे दशकों से लंबित हैं। आखिर यह क्या पहेली है? यह पहेली तब सुलझेगी जब रक्षा सौदों की प्रक्रिया को हर स्तर पर पारदर्शी बनाने के साथ ही हथियारों के मामले में आत्मनिर्भर बनने की कोई ठोस नीति बनाई जाएगी और उस पर सख्ती से अमल भी किया जाएगा।
इस आलेख के लेखक संजय गुप्त हैं !
रक्षा सौदों, हेलीकॉप्टर खरीद
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