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भारत एक लोककल्याणकारी देश है तथा इसकी प्राथमिकताएं सबको साथ लेकर चलने की रही हैं. सरकार को यदि लोक कल्याणकारी बजट बनाना है तो उसे देखना चाहिए कि संविधान की प्राथमिकताएं क्या हैं. वर्तमान बजट पद्धति में कई दोष विद्यमान हैं. आज केवल दस फीसदी वर्ग को ध्यान में रखकर ही बजट बनाया जाता है. मजदूरों, छोटे किसानों, आम लोगों की समस्याएं दूर करने के लिए बजट में कुछ नहीं किया जाता है. बजट में कृषि का जिक्र तो किया जाता है पर खेत मजदूरों, छोटे किसानों की समस्याएं सुलझाने पर ध्यान नहीं दिया जाता. बजट न तो संविधान का सम्मान करता है और न तो उसके अनुरूप बनाया जाता है. इसमें लोक कल्याणकारी राज्य की स्थापना का आदर्श और उद्देश्य कहीं दिखाई नहीं देता है.
इस महीने पेश होने वाले बजट की तैयारियों में जुटे वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी के सामने विकास और राजकोषीय घाटे में संतुलन कायम करने के साथ-साथ मंहगाई पर लगाम लगाने की चुनौती है. उन्हें राहत पैकेजों का भी भविष्य तय करना है. इन राहत पैकेजों की वापसी के खिलाफ उद्योग संगठनों ने मोर्चा खोल रखा है. काले धन को निकालने और आयकर का बकाया एक लाख करोड़ रुपया वसूलने की जिम्मेदारी भी वित्त मंत्री पर है. देश में 30 से 35 फीसदी काला धन होने के कारण एक समानांतर अर्थव्यवस्था विकसित हो गई है. इस पर तुरंत अंकुश लगाने की जरूरत है.
सबसे बड़ी चिंता की बात यह है कि किसानों की कर्ज माफी के बाद भी खेती की दशा में सुधार नहीं हुआ है और कृषि क्षेत्र में 0.2 फीसदी की गिरावट आई है. इसलिए वित्त मंत्री को कृषि उत्पादन बढ़ाने के लिए खास इंतजाम करने होंगे ताकि खाद्यान्न की महंगाई पर लगाम लगाई जा सके. इस देश की 65 फीसदी आबादी आज भी खेती पर निर्भर है इसलिए उसकी हालत सुधारे बिना समावेशी विकास का सपना पूरा नहीं किया जा सकता है. हालांकि वित्त मंत्री ने भारत निर्माण योजना में ग्रामीण ढांचे को मजबूत बनाने के लिए पिछले बजट में कुछ कदम उठाए थे, लेकिन वे पर्याप्त नहीं हैं.
सरकारें बजट में बड़ी-बड़ी घोषणाएं करती हैं. लेकिन आजादी के इतने वर्षों के बाद भी यदि जनता को पानी, बिजली और सड़क जैसी बुनियादी सुविधाएं नहीं मिल पाई हैं तो सरकारी घोषणाओं पर सवाल उठना स्वाभाविक है. अब आम आदमी बजट के सुनहरे सपनों पर भरोसा नहीं करता. वह ठोस परिणामों की आशा करता है तथा उन्हें व्यवहारिक रूप में देखना तथा अनुभव करना चाहता है. इसलिए बजट को लेकर भी कई तरह के सवाल उठते हैं.
क्या बजट अप्रत्यक्ष रूप से कुछ निजी घरानों या निहित स्वार्थों के उद्देश्यों की पूर्ति करेगा अथवा उसमें निर्धन तथा सामाजिक एवं आर्थिक रूप से पिछड़े लोगों का ध्यान रखा जाएगा? क्या बजट में आर्थिक अवसंरचना को घाटे के मूल्य पर प्रोत्साहन मिलेगा. ऐसा बजट घाटा तो देश में मूल्य वृद्धि उत्पन्न करेगा, जिसकी सबसे ज्यादा मार गरीबों तथा कम आमदनी वालों पर ही पड़ती है. क्या सरकारी तंत्र का आकार कम होगा ताकि सरकार के अनुत्पादक तथा अनावश्यक खर्चों में कटौती की जा सके? क्या इस बजट में उत्पादन वृद्धि तथा आर्थिक स्थायीकरण पर जोर दिया जाएगा?
ऐसे ही कुछ और भी तीखे प्रश्न निरंकार सिंह ने अपने महत्वपूर्ण आलेख में उठाया है. इसके अलावा यह भी उल्लिखित किया है कि सरकारी बजट के निर्माण में किन-किन जरूरी तत्वों का समावेश होना चाहिए.
Source: Jagran Yahoo
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