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व्यवस्था की संवेदनहीनता

संपादकीय ब्लॉग
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त्री अस्मिता के प्रति न केवल हमारा रूढि़ग्रस्त समाज, बल्कि स्वयं व्यवस्था भी बेहद संवेदनहीन हो चुकी है। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण बीते दिनों हरियाणा में एक के बाद एक हुई दुष्कर्म की कई घटनाओं और इसके बाद आई कई जिम्मेदार लोगों की प्रतिक्रियाओं से देखने को मिला। दरिंदगी की शिकार हो गई बच्चियों और महिलाओं के प्रति संवेदना के दो बोल बोलना तो दूर, उलटे लोगों ने उन्हें ही इसके लिए जिम्मेदार ठहरा दिया। कोई कहता है कि ऐसे ज्यादातर मामले आपसी सहमति से शुरू होते हैं तो कोई यह कहकर अपना पल्ला झाड़ लेता है कि ऐसी घटनाएं केवल हरियाणा ही नहीं, पूरे देश में बढ़ रही हैं। यह कहते हुए लोग यह भी भूल जाते हैं कि पूरे देश में आखिर सरकार किसकी है। कोई यह सवाल खड़ा कर देता है कि जिसकी कोई बेटी नहीं है, उसे इन मामलों पर सवाल उठाने की क्या जरूरत है और कोई यह कि लड़कियां अपने कपड़ों पर ध्यान क्यों नहीं देतीं। बड़े और जिम्मेदार राजनेताओं की ही बातों से यह जाहिर हो जाता है कि ऐसे मामलों में वास्तविक अपराधी को अपराधी मानने के लिए हमारा समाज इक्कीसवीं शताब्दी में भी तैयार नहीं है।


ऐसा लगता है, जैसे हम मानव सभ्यता के शुरुआती दौर से भी काफी पीछे चले गए हों। समाज के कमजोर तबकों के अस्तित्व और उनकी अस्मिता का रक्षा का सवाल जाने कहां पीछे छूट गया है। शासन व्यवस्था ने शायद यह मान लिया है कि अब समाज में सम्मान के साथ जीने का हक केवल उसे ही है जो अपनी रक्षा स्वयं करने में समर्थ हो। इतना ही नहीं, जो मजबूत है उसे कमजोर लोगों के अधिकार और अस्मिता के साथ खिलवाड़ की खुली छूट है। इस मामले में सरकार और सरकारी तंत्र कुछ भी कर पाने की स्थिति में नहीं है। आम जनता और खासकर कमजोर लोगों की अस्मिता और उनके अस्तित्व की सुरक्षा के प्रति शासन का न तो कोई दायित्व है और न ही कर्तव्य। सरकार का अगर कोई कर्तव्य और दायित्व है तो वह केवल अपना और अपने सहयोगियों का अस्तित्व बचाने तक सीमित होकर गया है। इसके लिए उसे जो कुछ भी कहना या करना पड़े, उस सबके लिए वह पूरी तरह तैयार है। इसमें न तो उसे कोई शर्म है और न हिचक। आम जनता पर जो कुछ भी गुजरे, उसके लिए वह स्वयं ही जिम्मेदार है। अगर स्थितियां ऐसी ही बनी रहीं तो क्या इसके भयावह नतीजों की कल्पना की जा सकती है? जाहिर है, इन हालात में केवल उनका ही अस्तित्व बचेगा जो सबसे मजबूत और सब कुछ करने में समर्थ हैं। फिर जंगलराज और कानून के शासन में अंतर क्या रह जाएगा?


अगर कानून के शासन में भी हमें जंगलराज ही झेलना है तो फिर इतने भारी-भरकम शासन और प्रशासनिक तंत्र का बोझ उठाने की जरूरत क्या है? विभिन्न करों के रूप में जनता अपनी गाढ़ी कमाई से जो रकम चुकाती है, उसका एक बहुत बड़ा हिस्सा केवल सरकारी मशीनरी के वेतन और सुविधाओं पर खर्च होता है। यह बहुत बड़ा सवाल है कि जब इसका कोई लाभ ही नहीं है और इसकी कोई जिम्मेदारी नहीं है, तो फिर जनता को यह बोझ उठाने की जरूरत क्या है? हम बार-बार नौकरशाही को लोकधर्मी बनाने की बात करते हैं। उससे यह उम्मीद करते हैं कि वह स्वयं को जनता का मालिक समझने के बजाय सेवक समझे।


यह कैसे संभव हो सकेगा, जब जनता के चुने हुए प्रतिनिधि ही खुद को शासक छोड़कर सेवक की भूमिका में लाने के लिए तैयार नहीं हैं? क्या यह लोकतांत्रिक मूल्यों के अनुरूप है? जब हमें समाज के कुछ अराजक तत्वों की राक्षसी मानसिकता और प्रवृत्ति पर जोरदार चोट करनी चाहिए तथा उन्हें कड़ी से कड़ी सजा देने की बात करनी चाहिए, तब हम उनकी ओर अपनी पीठ फेर कर लड़कियों की शादी की कानून द्वारा तय की गई उम्र पर फिर से विचार करने की बात करने लगते हैं। खापें तो खापें, राजनेता भी कहने लगते हैं कि 16 साल की उम्र तक लड़कियों की शादी कर दी जानी चाहिए। उस समय हम यह भी भूल जाते हैं कि विवाह के लिए लड़कियों की अपनी सहमति या असहमति का भी कोई अर्थ है। ऐसा लगता है जैसे स्ति्रयों के लिए मानवाधिकार का कोई अर्थ है ही नहीं। शायद हम उन्हें मनुष्य मानने के लिए भी तैयार नहीं हैं। यह हास्यास्पद सुझाव रखते हुए हमें यह भी याद नहीं रहता कि जिन लड़कियों के साथ दुष्कर्म हुए हैं, उनमें सभी की उम्र 16 साल से अधिक की नहीं थी।


अबोध बच्चियों तक के साथ सामूहिक दुष्कर्म जैसे जघन्य हादसे हाल ही में हुए हैं। इसके लिए हम किन्हें जिम्मेदार मानेंगे? क्या हमने मान लिया है कि विवाह स्त्री के लिए दुष्कर्म का शिकार न होने का लाइसेंस है? क्या विवाहित स्ति्रयों के साथ दुष्कर्म नहीं होते हैं? इसमें कोई दो राय नहीं है कि दुष्कर्म जैसा जघन्य अपराध केवल हरियाणा ही नहीं, पूरे देश में होता है। लेकिन यह कहकर एक राज्य की सरकार के बचाव का प्रयास तो किया जा सकता है, समस्या का समाधान नहीं।


अगर पूरे देश के स्तर पर देखा जाए तो दुष्कर्म की शिकार स्ति्रयों में अबोध बच्चियों से लेकर वयोवृद्ध स्ति्रयां तक शामिल हैं। दुखद सच यह है कि हमारी व्यवस्था की खामियों और सुस्ती की वजह से अधिकतर मामलों में अपराधियों को सजा नहीं ही मिल पाती है। इसके लिए हमारे समाज का नजरिया भी कम जिम्मेदार नहीं है। हम अभी भी ऐसे मामलों में वास्तविक अपराधी के बजाय अपराध के शिकार भुक्तभोगी को ही जिम्मेदार मानते हैं। चाहे कम उम्र में शादी की बात हो, चाहे कपड़ों की या फिर अधिकतर मामलों की सहमति से शुरुआत की, ऐसी हर बात से यही जाहिर होता है। इसीलिए हम शर्मनाक तर्को से सरकार का बचाव करते हैं और हास्यास्पद सुझाव भी देते हैं। सच तो यह है कि इसके लिए सबसे बड़ी जिम्मेदार हमारे समाज में व्याप्त कुंठाएं है, इसके बाद स्ति्रयों के प्रति समाज का नजरिया और फिर व्यवस्था की अपनी खामियां। समाज का नजरिया तो धीरे-धीरे बदल रहा है और अगर पिछले छह-सात दशकों के अनुभवों की बात की जाए तो काफी हद तक बदला भी है। लेकिन न तो व्यवस्था अपनी खामियों को दुरुस्त करने की बात सोचती दिख रही है और न ही कुंठाएं खत्म करने की दिशा में कोई ठोस प्रयास होता दिखता है। हालांकि कुंठाएं खत्म करने का काम आसान नहीं है और यह थोड़े समय में होने वाला भी नहीं है। इसके लिए मनोवैज्ञानिक उपाय करने होंगे और लंबे समय तक प्रयास भी करने होंगे।


सरकार को ये प्रयास तुरंत शुरू कर देने चाहिए। जब तक इनके परिणाम आने की अपेक्षा नहीं की जा सकती, तब तक कम से कम इतना तो किया ही जा सकता है कि व्यवस्था की खामियों को दूर किया जाए। इस मामले में एक और कानून बना देने से कुछ होने वाला नहीं है। जो कानून हैं उनके ही अनुरूप ऐसे मामलों की तेज गति से सुनवाई और दोषियों को जल्द से जल्द सजा तो सुनिश्चित की ही जा सकती है। अगर इतना भी कर लिया जाए तो इन अपराधों पर काफी हद तक काबू पाया जा सकता है।


लेखक निशिकांत ठाकुर  दैनिक जागरण हरियाणा, पंजाब व हिमाचल प्रदेश के स्थानीय संपादक हैं


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