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समान पाठ्यक्रम की चुनौती

संपादकीय ब्लॉग
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अगले साल 2011 से देश भर में विज्ञान और गणित में एक समान पाठ्यक्रम लागू करने पर सहमति बन गई है। सीबीएसई चेयरमैन की अध्यक्षता में सभी राज्य एवं प्राइवेट बोर्ड के सदस्यों की बैठक में यह निर्णय लिया गया है। गौरतलब है कि देशभर की सभी स्कूली शिक्षा परिषदों ने इस पर अपनी मोहर भी लगा दी है। इसका सीधा सा अर्थ यह हुआ कि वर्ष 2013 में इंजीनियरिंग व मेडिकल जैसे पाठ्यक्रम में प्रवेश लेने के लिए अब एक ही प्रवेश परीक्षा आयोजित की जाएगी। वर्तमान व्यवस्था के तहत विभिन्न शिक्षा बोडरें को अपनी सुविधानुसार पाठ्यक्रम निर्धारित करने की छूट थी। वर्तमान शिक्षा के रूपांतरण तथा प्रवेश परीक्षा के ढाचे के परिणामस्वरूप इंजीनियरिंग व मेडिकल संस्थानों पर इस परिवर्तन का क्या प्रभाव पड़ेगा, यह तो अभी भविष्य के गर्भ में है। स्कूली शिक्षा परिषद का यह निर्णय अभी केंद्रीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड के समक्ष प्रस्तुत किया जाना है। इसके बाद सरकार की वाणिज्य तथा मानविकी जैसे अनुशासनों में भी समान पाठ्यक्रम लागू करने की योजना है। निश्चित ही अगले तीन महीनों में शिक्षा के समान पाठ्यक्रम के ढाचे पर आम सहमति बनने की उम्मीद है। पिछले दिनों शिक्षा के संपूर्ण ढाचे में बदलाव को लेकर केंद्र सरकार ने कई निर्णय लिए थे। पहले परीक्षा को समाप्त करके ग्रेडिंग व्यवस्था को लागू करने की बात कही गई। दूसरी घोषणा के अंतर्गत बच्चे को स्कूल भेजने की न्यूनतम उम्र चार साल करने का निर्णय लिया गया। समान पाठ्यक्रम तथा समान प्रवेश परीक्षा जैसे निर्णयों को वैश्विक माग के अनुसार सही ठहराना उचित होगा। परंतु शिक्षा से जुड़े ऐसे सभी निर्णय अनेक प्रश्न भी खड़े कर रहे हैं। क्या शिक्षा की विषय-वस्तु एवं उसके स्वरूप के निर्णय का अधिकार केवल मंत्री अथवा बोर्ड के कुछ सदस्यों के हाथों में सीमित होना चाहिए अथवा ऐतिहासिक, सांस्कृतिक व भौगोलिक परिस्थितियों के अनुसार राज्यों का भी इसमें दखल होना चाहिए?

देश में समान पाठ्यक्रम लागू करने का विचार कोई नया नहीं है। देश की आजादी के बाद भारत सरकार ने 14 जुलाई, 1964 के अपने प्रस्ताव में डा. डीएस कोठारी की अध्यक्षता में शिक्षा आयोग गठित किया था। आयोग ने स्पष्ट किया था कि सोद्देश्य शिक्षा के अंतर्गत भाषा, मानविकी, समाज विज्ञान, गणित एवं प्राकृतिक विज्ञान के साथ में कार्यानुभव एवं समाजसेवा का समावेश होना चाहिए। परंतु यह लागू करना संभव नहीं हो सका। इस संदर्भ में शिक्षाविदों का विचार है कि यदि 1968 के कोठारी आयोग की रिपोर्ट का क्रियान्वयन किया जाता तो आज शैक्षिक परिदृष्य पूर्णतया अलग दिखाई देता। स्कूलों, कालिजों तथा विश्वविद्यालयों द्वारा आर्थिक संपन्नता और विपन्नता के कारण जो वर्ग भेद पैदा हुआ है उसका रूप उतना विषाक्त नहीं होता। शिक्षा प्रणाली के प्रति यह व्यग्रता इसलिए है क्योंकि वर्तमान शिक्षा प्रणाली जीवन की आवश्यकताओं के साथ सहज संबंध नहीं रख पा रही है। इस शिक्षा प्रणाली ने मूल्यों और संस्कारों को पूर्ण तिलाजलि दे दी है। यही कारण है कि शिक्षा के अंतर्गत पाठ्यक्रम मात्र डिग्री प्राप्त करने का साधन बनकर रह गए हैं। साथ ही नौकरी प्राप्त करने के लिए डिग्री केंद्र में आ गई है। निश्चित ही कपिल सिब्बल द्वारा उठाए गए वर्तमान कदम सराहनीय हैं परंतु कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक समान पाठ्यक्रम एवं परीक्षा का यह ढाचा कैसे कार्यात्मक शक्ल लेगा, यह अभी संदेह के घेरे में है। हाल ही में सीमित संख्या वाली कैट की आनलाइन प्रवेश परीक्षाओं में अनेक खामिया पाई गई थीं। फिर बहुवर्गीय, बहुखंडीय तथा बहुधार्मिक ढाचे वाले इस देश में कमजोर व गरीब तबकों के लिए न्यूनतम शिक्षा अभी भी दिवास्वप्न बनी हुई है। देश में गुणवत्ता प्रधान शिक्षा तो दूर सामान्य शिक्षा की तस्वीर भी साफ नहीं है। वास्तविक स्थिति यह है कि कक्षा 3 से 5 तक के 35 प्रतिशत बच्चे पहली कक्षा की किताबों को भी नहीं पढ़ पाते। दूसरी ओर, पहली और दूसरी कक्षा के 46 प्रतिशत बच्चे अंग्रेजी के अक्षर भी ठीक से नहीं पहचान पाते। ग्रामीण शिक्षा की स्थिति यह है कि कक्षा 5 तक के 17 प्रतिशत बच्चों को ट्यूशन का सहारा लेना पड़ रहा है। निश्चित ही यह दृश्य देश की बुनियादी शिक्षा की कमजोर तस्वीर प्रस्तुत करता है। साथ ही यह सभी बच्चों का वह वर्ग है जो भविष्य में किसी न किसी शिक्षा बोर्ड के माध्यम से सामान्य पाठ्यक्रम और प्रवेश परीक्षा का हिस्सा बनेगा।

सामान्य पाठ्यक्रम और सामान्य प्रवेश परीक्षा से जुड़ी अवधारणा अमेरिका तथा यूरोप के कई देशों में पहले से प्रचलित है परंतु वहा की शिक्षा बाजार की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए ही विकसित की गई है। भारत में कुकुरमुत्तों की तरह जो इंजीनियरिंग व मेडिकल संस्थान खुले हैं, उनमें अधिकाश गुणवत्ता को ताक पर रख व्यावसायिक हो गए हैं। इसलिए माध्यमिक शिक्षा में आमूलचूल परिवर्तन करने के साथ-साथ इसमें व्यक्तित्व और कैरियर की पहचान के आधार पर प्रवेशार्थियों की छंटनी करने का शैक्षिक तंत्र भी विकसित करना होगा ताकि उच्च शिक्षा पर अनावश्यक व अनुपयोगी बोझ को रोका जा सके। निश्चित ही सामान्य पाठ्यक्रम के आधार पर इतने अधिक विषयों का संपूर्ण देश में एक साथ अध्ययन तथा एक ही साथ प्रवेश परीक्षाओं का संपन्न कराना एक कठिन कार्य है। आवश्यकता इस बात की है कि शिक्षा का यह सामान्य तंत्र बाजार की प्रतिस्पर्धा का हिस्सा तो बने परंतु खुद बाजारू न बने। तभी शिक्षा का यह तंत्र वर्तमान की आवश्यकताओं के साथ ताल-मेल बैठा सकेगा।

[डा. विशेष गुप्ता: लेखक समाजशास्त्र के प्राध्यापक हैं]

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