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19वीं शताब्दी के मध्य में अपने औपनिवेशिक, आर्थिक, राजनीतिक और प्रशासनिक हितों की सेवा करने केलिए और खासतौर से देश में अपनी पकड़ मजबूत बनाए रखने एवं अपने प्रभुत्व को कायम रखने के लिए ब्रिटिश शासकों द्वारा प्रत्यारोपित यह शिक्षा व्यवस्था दुर्भाग्य से कमोबेश आज भी जारी है। नए मानव संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल ने निश्चित रूप से देश की शिक्षा प्रणाली में सामान्य रूप से और खास तौर से उच्च शिक्षा के क्षेत्र में नए सुधारों का सूत्रपात किया है, लेकिन अब भी कई चीजें उनकी अथवा यह कहें कि उनकी टीम की नजर से छूट गई हैं। उन अनेक मुद्दों में से एक है स्नातक और स्नातकोत्तर स्तर की शिक्षा संबंधी योजना और पाठ्यक्रम पर पुनर्विचार। पहले स्नातक स्तर की शिक्षा पर विचार करें। आमतौर पर दुनिया में और खास तौर से हमारे देश में स्नातक स्तर की शिक्षा पाना एक नैतिक दायित्व और जरूरत सा बन गया है, बल्कि अपने देश में तो स्नातक स्तर की शिक्षा का महत्व अमेरिका और यूरोप के देशों से कुछ ज्यादा ही नजर आता है।
हमारे यहां तो स्नातक स्तर की शिक्षा अर्थात बीए, बीएससी और बीकाम या इन जैसी अन्य डिग्री ही वह न्यूनतम अर्हता है जिसके आधार पर कोई आईएएस, आईपीएस से लेकर बैंक अफसर अथवा क्लर्क तक के रोजगार के लिए योग्य हो जाता है। कहने का तात्पर्य है कि स्नातक उत्तीर्ण करने का मतलब यह मान लिया जाता है कि विद्यार्थी अब विभिन्न तरह की जिम्मेदारियों का वहन करने में सक्षम और समर्थ है, जबकि वास्तविकता इससे शायद कई बार कोसों दूर होती है। इसको इस उदाहरण से समझा जाए कि अगर किसी विद्यार्थी के बीए में हिंदी, दर्शनशास्त्र और इतिहास विषय हों तो वह किस तरह से एक सफल बैंक अफसर या रेल क्लर्क या प्रशासनिक अफसर बनने के काबिल हो जाएगा। यह ठीक है कि वह प्रतियोगिता परीक्षा से चयनित होकर आ रहा है, लेकिन यहां बहुत ही महत्वपूर्ण सवाल उठता है कि संस्कृत और दर्शनशास्त्र या किसी अन्य ऐच्छिक विषयों में बहुत अच्छे अंक लाकर अगर कोई इन प्रतियोगिता परीक्षाओं में सफल हो जाए तो भी क्या उसे उस सेवा के लिए श्रेष्ठ उम्मीदवार समझा जाए। इसी तरह उन्हीं विषयों से स्नातक उम्मीदवार क्या बैंक अफसर या क्लर्क की सेवा के लिए योग्य और उत्तम व्यक्ति होगा। ठीक यही बात इसी तरह से भौतिकी, रसायन विज्ञान और गणित आदि विषयों से उतीर्ण स्नातक व्यक्ति के लिए भी कही जा सकती है। ऐसा विद्यार्थी विज्ञान में तो अच्छा ज्ञान रख सकता है, लेकिन ऊपर जिन विभिन्न पदों या रोजगारों की बात हम कर रहे हैं क्या उसके लिए भी वह उचित और पर्याप्त ज्ञान और समझ रखता है? स्वाभाविक जवाब है-नहीं। फिर रोजगार और पदों की बात तो छोड़िए, ऐसे व्यक्ति सामान्य जीवन में भी समाज के लिए एक संतुलित और पूर्ण व्यक्तित्व के रूप में उभर नहीं पाते हैं जो एक तरह से हमारे मानव संसाधनों का दुरुपयोग या निरुपयोग ही है। स्नातक स्तर पर सिर्फ भौतिकी या अन्य विज्ञान ंिवषयों अथवा कला या सिर्फ समाज विज्ञान आदि किसी एक ही क्षेत्र में अच्छा ज्ञान व्यक्ति और समाज, दोनों ही के लिए मुकम्मल नहीं है।
एक सामान्य व्यक्ति को दैनिक जीवन में इन विषयों के बजाय कुछ और चीजों की ज्यादा आवश्यकता होती है। उसे पर्यावरण, राजनीतिक जीवन, पुलिस, कानून, आर्थिक परिस्थितियों, विभिन्न तरह की संस्कृतियों, अपने इतिहास से परिचय और मेडिकल संबंधी जरूरतों जैसी चीजों और मुद्दों से रूबरू होना पड़ता है, जिनके बारे में एक स्नातक उतीर्ण व्यक्ति को सामान्य ज्ञान भी नहीं होता-चाहे वह आर्ट्स से स्नातक हो या साइंस से या फिर इंजीनियरिंग से ही। इसको एक दूसरे उदाहरण से इस तरह समझें कि उपरोक्त विषयों में से किसी भी एक से स्नातक व्यक्ति या एक इंजीनियर या बैंक अफसर व्यक्ति को अगर पुलिस किसी बात के लिए परेशान करे तो उसे पता ही नहीं कि उसकेक्या अधिकार हैं। यहां तक कि हिंदी या अर्थशास्त्र या गणित के एक सामान्य प्राध्यापक को भी संभवत: पता नहीं होगा कि उसके सामान्य कानूनी अधिकार क्या हैं या एक जिम्मेदार नागरिक होने के नाते पर्यावरण को बेहतर बनाने के लिए क्या करना या क्या नहीं करना जरूरी है। इसी तरह से विज्ञान या इंजीनियरिंग से स्नातक व्यक्ति को समाज और साहित्य का भी ज्ञान आवश्यक है, क्योंकि अंतत: यही उनके ज्ञान को समाज से जोड़ेगा। इस तरह की थोड़ी बहुत कोशिश अपने यहां आईआईटी में हुई है, लेकिन समग्र रूप से हमारे शिक्षा संबंधी नीति-निर्धारक व्यावहारिक कम हैं और सैद्धातिक ज्यादा। या ऐसे कहें कि व्यावहारिक जीवन से कटे हुए हैं और औपनिवेशिक मानसिकता से उबर नहीं पाए हैं।
इस स्नातक संबंधी पूरी प्रणाली पर विचार करने की जरूरत है। सबसे पहले तो यही कि आर्ट्स हो या साइंस, इसे तीन वर्षीय कार्यक्रम की जगह चार वर्षीय कार्यक्रम कर देना चाहिए जैसा कि अमेरिका आदि देशों में है। वैसे जो विद्यार्थी अतिरिक्त मेहनत कर इससे छूट लेना चाहें और इसे चार साल से कम में ही पूरा करना चाहें उन्हें छूट देने का प्रावधान किया जा सकता है। आरंभ के दो वर्र्षो में सभी विद्यार्थियों को कुछ अनिवार्य विषय पढ़ने चाहिए। हां यह हो सकता है कि आर्ट्स और साइंस ग्रुप के लिए ये अनिवार्य विषय थोड़े अलग हो सकते हैं। अमेरिका में इसे कोर करिकुलम कहते हैं, जो लगभग सभी विश्वविद्यालयों में है। उदाहरण के लिए विश्व के श्रेष्ठतम विश्वविद्यालयों में से एक यूनिवर्सिटी आफ शिकागो में पंद्रह कोर कोर्स हैं। हार्वर्ड या कोलंबिया यूनिवर्सिटी के अपने-अपने कोर कोर्स हैं। यहां बता देना उचित है कि साइंस वालों को यहां सिर्फ साइंस के विषय नहीं पढ़ना पड़ता है, बल्कि उन्हें डिग्री पाने और मुकम्मल व्यक्ति बनने के लिए अन्य विषयों का भी अध्ययन करना होता है। मिसाल के तौर पर अमेरिका की ही सेंट लुइस यूनिवर्सिटी में साइंस वालों को भी इतिहास, साहित्य, कला, सामाजिक विज्ञान, संस्कृति के कोर्स पास करना पड़ता है। यही नहीं अमेरिका आदि देशों में इंजीनियरिंग की डिग्री प्राप्त करने के लिए भी कला, मानविकी या सामाजिक विज्ञान के कुछ कोर्स उत्तीर्ण करने पड़ते हैं। उसी तरह कला या साहित्य से आनर्स करने वालों को गणित, विज्ञान और सामाजिक विज्ञान के कोर्स भी पास करने होते हैं। इस प्रकार की शिक्षा प्रणाली में विद्यार्थी चाहे जिस विषय से आनर्स करे, समाज और जीवन के बारे में उसे एक अच्छी और संतुलित जानकारी हो जाती है, जिससे वह एक जिम्मेदार नागरिक बनकर उभरता है।
इसी से जुड़ी हुई दूसरी जरूरी चीज यह है कि आनर्स के विषय का चयन या आवंटन शुरू में ही न होकर दो साल के परीक्षा परिणामों के आधार पर हो। इससे एक फायदा यह होगा कि विद्यार्थी जब स्नातक में प्रवेश लेता है तो उनमें से अधिकाश को खुद पता नहीं होता कि किस विषय में उसे ज्यादा दिलचस्पी है या कि किसमें वह अच्छा कर सकता है, लेकिन दो वर्ष तक कालेज और यूनिवर्सिटी में विभिन्न विषयों को पढ़ने के बाद उसे कुछ- कुछ अहसास होने लगता है कि किस विषय में उसका मन लगता है। कहने की जरूरत नहीं कि आज अपने देश में भी इस तरह के करिकुलम की जरूरत है, लेकिन सवाल है कि देश हित में गंभीरतापूर्वक और सम्यक तरीके से सोचने, नीतिया बनाने और उसे लागू करने के लिए क्या हम नए सिरे से तैयार हैं?
[निरंजन कुमार : लेखक कई अमेरिकी विवि में प्राध्यापक रहे हैं]
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