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67वें स्वतंत्रता दिवस की पूर्वसंध्या पर राष्ट्रपति के संबोधन ने यह स्पष्ट कर दिया कि देश में व्याप्त निराशाजनक और नकारात्मक माहौल से वह परिचित भी हैं और चिंतित भी। उन्होंने संसदीय गतिरोध से लेकर शासन व्यवस्था में बढ़ती खामियों के साथ-साथ संस्थानों पर आम जनता में घटते विश्वास का उल्लेख करते हुए यह रेखांकित किया कि बेलगाम व्यक्तिगत संपन्नता, नैतिकता में गिरावट, असहनशीलता, मनमानी और देश की आधार मानी जाने वालीं संस्थाओं के प्रति घटते सम्मान के कारण हम एक तरह से अपनी कार्य संस्कृति नष्ट होने दे रहे हैं। राष्ट्रपति ने इस पर दुख जताया कि संसद लड़ाई का अखाड़ा बनती जा रही है। उन्होंने देश के विकास और समस्याओं के निदान के लिए अगले आम चुनाव में स्थिर सरकार चुनने की अपील की। राष्ट्रपति के इस विचार से असहमत नहीं हुआ जा सकता कि मौजूदा परिस्थितियों में अगले आम चुनाव देश के भविष्य के लिए बेहद महत्वपूर्ण होंगे। उन्होंने परोक्ष रूप से पाकिस्तान को यह संदेश भी दिया कि वह भारत के धैर्य की परीक्षा न ले। कुल मिलाकर राष्ट्रपति ने मौजूदा स्थितियों का बहुत सटीक विश्लेषण किया है। उनकी मनोभावना क्या है, इसका पता इससे भी चलता है कि उन्होंने सरकार और राजनीतिक दलों को मौजूदा हालात के प्रति आगाह किया। स्पष्ट है कि वह सरकारी कामकाज और राजनीतिक दलों की कार्यशैली और रवैये से संतुष्ट नहीं हैं। उनकी चिंता नौकरशाही के कामकाज को लेकर भी है, जो गंभीर होती समस्याओं के समाधान के लिए आवश्यक समर्पण और इच्छाशक्ति का परिचय नहीं दे पा रही है।
राष्ट्रपति समस्याओं की ओर देश का ध्यान तो आकृष्ट कर सकते हैं, लेकिन उनके समाधान में उनकी कोई सक्रिय भूमिका नहीं होती।1 राष्ट्रपति के संबोधन के अगले दिन लाल किले की प्राचीर से प्रधानमंत्री ने जो भाषण दिया वह राष्ट्रपति से एकदम अलग था। प्रधानमंत्री ने संप्रग सरकार के पहले और दूसरे कार्यकाल की उपलब्धियों पर संतोष व्यक्त करते हुए कुछ ऐसा प्रदर्शित किया जैसे देश में कहीं कोई गंभीर समस्या ही न हो। उन्होंने उस भ्रष्टाचार की भी अनदेखी कर दी जिसने देश को हिलाकर रख दिया है। आश्चर्यजनक रूप से वह उन सामाजिक योजनाओं के गुणगान तक ही सीमित रहे जिन्होंने मुट्ठी भर लोगों का तो भला किया, लेकिन देश की अर्थव्यवस्था को खोखला कर डाला। पता नहीं क्यों उन्होंने यह देखने-समझने की आवश्यकता नहीं महसूस की कि जिस सूचना अधिकार कानून को भ्रष्टाचार के खिलाफ एक कारगर हथियार माना जा रहा है उसके दायरे में आने के लिए राजनीतिक दल क्यों तैयार नहीं हैं? हालांकि वह ओजस्वी भाषण देने के लिए नहीं जाने जाते, लेकिन यह सबने महसूस किया कि उन्होंने पाकिस्तान को सख्त संदेश देने से परहेज किया। सबसे अधिक चौंकाने वाला यह रहा कि उन्होंने आर्थिक मोर्चे पर देश को आश्वस्त करने की कहीं कोई ठोस कोशिश नहीं की। इस मामले में उनकी ओर से जो कुछ कहा गया उसमें कोई नयापन नहीं था।
प्रधानमंत्री के भाषण के बाद गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने कच्छ में स्वतंत्रता दिवस समारोह मनाते हुए जिस तरह राष्ट्र को संबोधित सा किया वह आम चुनाव की रणभेरी बज जाने का आभास देता है। प्रधानमंत्री के भाषण की विपक्ष की ओर से आलोचना स्वाभाविक ही है, लेकिन मोदी ने जिस प्रकार अपनी पूर्व घोषणा के तहत लाल किले से कही गई बातों का जवाब देकर प्रधानमंत्री को चुनौती दी उससे जाने-अनजाने एक नई परंपरा शुरू होती दिखाई दी। इससे कांग्रेस और भाजपा के बीच राजनीतिक कटुता और बढ़ती दिख रही है। मोदी के वक्तव्य में कांग्रेस की नाकामियां गिनाने और गांधी परिवार की आलोचना करने के अतिरिक्त और कुछ नहीं था। नि:संदेह भाजपा गुजरात के साथ-साथ मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के विकास कार्यो पर गर्व कर सकती है, लेकिन एक मुख्यमंत्री की अपने राज्य में सफलता अलग बात है और पूरे देश का शासन चलाना अलग बात। इस समय देश में जैसे हालात हैं उन्हें देखते हुए केंद्रीय सत्ता का संचालन करना और अधिक चुनौतीपूर्ण हो गया है। भाजपा यह दावा नहीं कर सकती कि उसने पिछले लगभग एक दशक में मुख्य विपक्षी दल की अपनी भूमिका के साथ पूरा न्याय किया है। 1भारत सरीखे लोकतंत्र में ऐसी अनेक समस्याएं हैं जिनका समाधान विपक्ष की मदद के बिना संभव नहीं। भ्रष्टाचार के साथ नौकरशाही की निष्क्रियता और नीतिगत पंगुता जैसी समस्याओं के लिए सत्तापक्ष के साथ-साथ कहीं न कहीं विपक्ष भी जिम्मेदार है। एक ऐसे समय जब आर्थिक चुनौतियां लगातार गंभीर होती जा रही हैं और रुपये के लगातार कमजोर होते जाने के साथ ही देशी-विदेशी निवेशकों का भरोसा टूट रहा है तब प्रधानमंत्री का वही पुराना सब कुछ ठीक हो जाने का भरोसा देने वाला रवैया निराश करने वाला है। वैसे तो कोई भी दल अपनी कमजोरियां स्वीकार नहीं करता, लेकिन यह भी उचित नहीं कि कोई सरकार राष्ट्रपति की चिंताओं से अपरिचित दिखाई दे। यदि मनमोहन सरकार सभी समस्याओं का समाधान कानून बनाकर ही करना चाहेगी तो इसे सही नहीं कहा जा सकता। प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा कानून सरीखे उपाय सिद्धांत रूप में तो बहुत अच्छे लगते हैं, लेकिन उनके क्रियान्वयन की कठिनाइयों की अनदेखी नहीं की जा सकती। किसी को इस पर ध्यान देना चाहिए कि मनरेगा किस तरह देश के लोगों को अकर्मण्यता की तरफ भी धकेल रही है। मुख्यत: वोट बटोरने के इरादे से संचालित की जाने वाली योजनाएं अर्थव्यवस्था का भला नहीं कर सकतीं। वे तो सरकारी खजाने की लूट का ही रास्ता खोलती हैं। ऐसी योजनाओं के आधार पर बेरोजगारी की समस्या के प्रति निश्चिंत हो जाना सही नहीं। मुफ्तखोरी अथवा आरामतलबी को बढ़ावा देने वाली योजनाएं उत्पादकता पर गंभीर असर तो डालती ही हैं, सरकारी खजाने पर बोझ बनती हैं।1मनमोहन सिंह का संबोधन कुछ ऐसा आभास भी दे रहा था मानो लाल किले की प्राचीर से यह उनका अंतिम संबोधन है।
मौजूदा चुनौतियों पर जोर न देकर उन्होंने जिस तरह अपनी सरकार के पिछले दस साल के कामकाज का उल्लेख किया उससे यह साफ हो गया कि वह अपने समक्ष उपस्थित समस्याओं से जूझना नहीं चाहते और अब उनके अंदर देश को दिशा देने की सामथ्र्य नहीं रह गई है। अगर केंद्र सरकार अपने पिछले कार्यकाल के आर्थिक विकास को अपनी सफलता मानती है तो यह उसकी भूल है। उसकी सफलता में पिछली राजग सरकार का भी योगदान है। राजग सरकार के समय आधारभूत ढांचे के निर्माण की जो व्यापक पहल की गई उसके ही वेग से संप्रग सरकार अपने पहले कार्यकाल में आर्थिक विकास दर को और आगे बढ़ाने में समर्थ हुई। जैसे ही 2008 में वैश्विक आर्थिक स्थिति बदली, मनमोहन सरकार हालात के हिसाब से काम करने में समर्थ नहीं सिद्ध हुई। आज देश जिस मुश्किल हालत में है उसके लिए केंद्र सरकार की शिथिलता ही जिम्मेदार है। अगर यह सरकार सामाजिक योजनाओं पर अमल को अपनी उपलब्धियां बताती रहती है तो इसका खास मतलब नहीं, क्योंकि उसने ऐसा कुछ भी नहीं किया जिससे कि मध्यम वर्ग के लिए रोजगार की संभावनाएं बढ़ी हों। रोजगार के अवसर तो कम ही हुए हैं। ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि सरकार ने आर्थिक सुधार लागू करने की इच्छाशक्ति ही नहीं दिखाई। प्रधानमंत्री के भाषण से देश में व्याप्त हताशा-निराशा के माहौल का दूर न होना स्वाभाविक है।
इस आलेख के लेखक संजय गुप्त हैं
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