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लादेन की मौत के बाद मजहब, आतंक और राष्ट्र की भूमिका पर नए सिरे से विचार करने की जरूरत जता रहे हैं सी. उदयभाष्कर
अमेरिकी कार्रवाई में अलकायदा का सरगना ओसामा बिन लादेन वास्तव में मारा गया या नहीं, इस संदेह को अलकायदा की घोषणा ने दूर कर दिया है। 6 मई को जारी बयान में इस आतंकी समूह ने पुष्टि कर दी कि उसका नेता मारा गया। साथ ही उसने उसकी मौत का बदला लेने की कसम भी खाई। उसकी मौत को अभिशाप बताते हुए अलकायदा ने पाकिस्तान के लोगों से शासकों और अमेरिका के खिलाफ उठ खड़े होने आह्वान किया है। इस बयान में धमकी दी गई है कि उसका खून अभिशाप बनकर अमेरिका और उसके एजेंटों का देश के बाहर और भीतर पीछा करता रहेगा। अमेरिका के बारे में कहा गया है कि उसकी खुशी गम में बदल जाएगी और उसे खून के आंसू रोने पड़ेगे। इसमें पाकिस्तान, जहां ओसामा मारा गया, के मुसलमानों से अपील की गई है कि वे बगावत कर दें। उम्मीद के मुताबिक छह मई को जुमे की नमाज के बाद पाकिस्तान के विभिन्न भागों में छोटे-बड़े विरोध प्रदर्शन हुए। राहत की बात यह रही कि जहां कराची में प्रदर्शन में हजारों लोगों ने हिस्सा लिया, वहीं इस्लामाबाद और रावलपिंडी में सैकड़ों लोग ही इनमें शामिल हुए। जैसाकि रिपोर्टो से संकेत मिलता है, पाकिस्तान में लोग ओसामा को समर्थन देने के बजाए अमेरिका के विरोध में अधिक दिखे।
लादेन की मौत पर कुछ प्रारंभिक विश्लेषण, प्रतिक्रियाओं और क्षेत्रीय निहितार्थ को उचित ठहराया जा सकता है। ओसामा बिन लादेन और अलकायदा अमेरिका के प्रमुख लक्ष्य थे और इसीलिए लादेन की मौत पर अमेरिका ने कहा था आखिर ‘न्याय’ हो ही गया। यह भी कहा जा रहा है कि अमेरिका ने बदला ले लिया है। लादेन को मारने के तरीके से कई परेशानी खड़े करने वाले सवाल उठ रहे है। इनमें केंद्रीय मुद्दा है-क्या अमेरिका ने कानूनी कार्यवाही के पचड़े में पड़ने से बचने के लिए लादेन को खत्म कर दिया? क्या यह इस नजीर की पूर्व घोषणा है कि समान सोच वाला समूह यह तय कर ले कि किस बड़े आतंकी लक्ष्य को मिटाना है? क्या यह आतंकियों की मुठभेड़ का नया वैश्विक नमूना है?
ओसामा बिन लादेन की मौत पाकिस्तान में बवंडर ला सकती है। इसका क्षेत्रीय स्तर पर बड़ा जटिल प्रभाव पड़ेगा। दुनिया भर में सवाल पूछा जा रहा है कि क्या पाकिस्तानी सेना और आइएसआइ एबटाबाद में पाक मिलिट्री अकादमी से महज 800 मीटर दूर रह रहे ओसामा का पता लगाने में असमर्थ थी। यह पाक सेना की अयोग्यता हो या चतुराई, किंतु यह तय है कि अब वह रक्षात्मक हो गई है। लगता है इस मामले में कुछ लोगों की बलि चढ़ाई जाएगी और आइएसआइ प्रमुख जनरल अहमद शुजा पाशा से इसकी शुरुआत हो सकती है। हालांकि लादेन की मौत का तात्कालिक परिणाम इस पर निर्भर करेगा कि पाकिस्तानी सत्ता, खासतौर पर सेना दक्षिणपंथी ताकतों के प्रोत्साहन की प्रतिक्रिया और ओसामा की मौत पर जनाक्रोश से किस प्रकार निपटती है। पाकिस्तान में कुछ समूह अमेरिका के खिलाफ जहर उगल रहे है और पाक सेना की लानत-मनालत कर रहे है, किंतु यह अधिक दिन नहीं चलेगा। एक महत्वपूर्ण घटनाक्रम यह रहा कि पाकिस्तान के मीडिया ने अब तक लादेन को इस्लाम के लिए शहीद घोषित नहीं किया है। अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने भी रेखांकित किया है कि लादेन इस्लामिक नेता नहीं था, वह तो आतंकी समूह के भगोड़ों का प्रमुख था।
लादेन की मौत ने पूरे दक्षिण एशियाई क्षेत्र और यूरोप सहित उन देशों के लिए सामरिक चुनौती पेश कर दी है, जिनमें खासी संख्या में मुस्लिम आबादी रहती है। अगर मुस्लिम देशों में आतंक और इस्लाम के बीच संबंधों को नकारने की आवाज उठती है तो इससे हालात तेजी से सुधरने में मदद मिलेगी। लादेन की मौत के बाद अफगानिस्तान के बजाय पाकिस्तान के संकटग्रस्त अखाड़े के तौर पर उभरने के पीछे यह सच्चाई है कि पाकिस्तानी सरकार, जिसमें सेना और आइएसआइ की भूमिका महत्वपूर्ण है, को लगता है कि वे पाकिस्तान की सुरक्षा और संप्रभुता के ही रक्षक नहीं है, बल्कि उस इस्लाम की रक्षा भी उन्हीं का जिम्मा है, जो कट्टरपंथी धारा में बह रहा है। इसी के प्रभाव में गवर्नर तसीर और मंत्री भ˜ी की हत्याओं का इस्लाम के रक्षकों ने प्रशंसागान किया था। इस सोच में बदलाव की जरूरत है।
यह तभी संभव है जब पाक सेना आज पाकिस्तान के लिए खतरा बन चुकी विचारधारा को सामरिक नीति का अंग बनाने से बाज आए। यह भारत का हौवा नहीं, बल्कि आतंकी शक्तियां है, जिन्हे 1980 से पोषित किया जा रहा है। तब अमेरिका और सऊदी अरब ने इसी लादेन को समर्थन दिया था और इसी के साथियों को एके-56 की घातकता को पंथिक उन्माद में मिलाने को प्रोत्साहित किया गया था, ताकि सोवियत संघ को अफगानिस्तान से मार भगाया जाए।
अब चक्र पूरा हो गया है। अब अमेरिका और इसके पश्चिमी मित्र विदेशी आक्रांता के रूप में देखे जा रहे है, जिन्हे खदेड़ने की लड़ाई चल रही है। आतंकियों से लड़ने में सहयोग के लिए अमेरिका अफगानिस्तान और पाकिस्तान को अरबों डॉलर की मदद दे रहा है। ओसामा बिन लादेन को मारने से अधिक महत्वपूर्ण है उसकी विचारधारा को खत्म करना। अन्यथा इस क्षेत्र में 12 साल के बच्चे आत्मघाती हमलावर बनते रहेंगे और गैरसुन्नी मुसलमानों को इस्लाम की रक्षा के लिए लक्ष्य बनाया जाता रहेगा। ओसामा बिन लादेन की मौत मजहब, आतंक और राष्ट्र की भूमिका के संदर्भ में नए विचारों पर चिंतन का अवसर लेकर आई है। हम इसे व्यर्थ न जाने दें।
[सी. उदयभाष्कर: लेखक सामरिक मामलों के विशेषज्ञ हैं]
साभार: जागरण नज़रिया
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