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‘‘हम आम आदमी पार्टी से सीखेंगे और इस तरह काम करेंगे कि आप कल्पना भी नहीं कर सकते।’’ राहुल गांधी, चार राज्यों में पराजय के बाद, रविवार, 8 दिसंबर ‘‘यह विकृत और धोखेबाजी से भरी रिपोर्ट है और इसे संयुक्त संसदीय समिति की रिपोर्ट नहीं कहा जा सकता।’’ गुरुदास दासगुप्ता, लोकसभा में जेपीसी की रिपोर्ट पेश किए जाने के दौरान, सोमवार, 9 दिसंबर इन दोनों बयानों से यही पता चलता है कि राहुल गांधी के खुद को बदलने का यकीन दिलाने के 24 घंटे के अंदर किस तरह लोकसभा में संयुक्त संसदीय समिति की वह मनमानी रिपोर्ट पेश कर दी गई जिस पर भाजपा, वाम दलों के साथ द्रमुक को भी आपत्ति थी। इसका मतलब यही हुआ कि आप से सबक सीखने की बात में कहीं कोई सार नहीं था। राहुल गांधी इससे अनजान नहीं हो सकते कि आप मूलत: भ्रष्टाचार विरोध पर खड़ा हुआ राजनीतिक दल है। अरविंद केजरीवाल और उनके साथियों का सारा जोर भ्रष्टाचार रोकने, भ्रष्ट तत्वों को बेनकाब और दंडित करने पर है। जेपीसी का सारा जोर सच्चाई को दबाने और लीपापोती करने पर रहा। यह जोर इस हद तक रहा कि इस समिति के अध्यक्ष पीसी चाको ने विपक्षी सदस्यों के असहमति नोट भी बदल दिए। चोरी और सीनाजोरी का इससे खराब उदाहरण खोजना मुश्किल है। पिछली संयुक्त संसदीय समितियों के कामकाज को देखते हुए इसकी ज्यादा उम्मीद नहीं थी कि 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले का पता लगाने के लिए गठित संसदीय समिति अपना सारा कामकाज नीर-क्षीर ढंग से करेगी, फिर भी यह तो अपेक्षा थी ही कि वह यह पता लगाने में सक्षम रहेगी कि यह घोटाला किन परिस्थितियों में और किसकी लापरवाही से हुआ? पीसी चाको वाली संसदीय समिति की मानें तो यह घोटाला राजग सरकार की गलत नीतियों की वजह से हुआ और सारी गड़बड़ी सिर्फ ए.राजा ने की। किसी के लिए भी यह मानना कठिन है कि कोई एक मंत्री अपने बलबूते इतना बड़ा घोटाला कर सकता है। इस पर भी गौर करें कि ए.राजा जेपीसी के सामने पेश होने की गुहार लगाते रहे और चाको उनकी पेशी को अनावश्यक बताते रहे।
यह शायद दुनिया की इकलौती जांच समिति होगी जिसने घोटाले के लिए जिम्मेदार शख्स से पूछताछ करने के बजाय उससे मुंह चुराना बेहतर समझा। जेपीसी ने जो कुछ किया वह जांच के नाम पर एक मजाक ही नहीं, बल्कि धोखाधड़ी भी है। यह धोखाधड़ी इस ढिठाई के साथ की गई कि भविष्य में शायद ही किसी मामले की जांच जेपीसी से कराने की मांग की जाए। चाको और उनके साथियों ने सच्चाई के साथ-साथ एक समिति को ही दफन कर दिया। इसका श्रेय सोनिया के खाते में भी जाएगा और मनमोहन सिंह के भी। इसमें संदेह है कि कांग्रेसजन यह महसूस कर सकेंगे कि चार राज्यों में उनकी पराजय का एक कारण केंद्रीय सत्ता का नाकारापन भी रहा। यह संदेह इसलिए है, क्योंकि कांग्रेसजनों ने एक ऐसा माहौल रच दिया था कि प्रधानमंत्री के खिलाफ कुछ कहना और खासकर भ्रष्टाचार के प्रति उनकी निष्क्रियता का जिक्र करना ईशनिंदा जैसा हो गया था। जैसे ही यह पूछा जाता था कि प्रधानमंत्री की नाक के नीचे इतने बड़े-बड़े घपले-घोटाले क्यों होते रहे वैसे ही उनकी व्यक्तिगत ईमानदारी और साफ-सुथरी छवि की दीवार खड़ी कर दी जाती।
यह दीवार अभी भी सलामत हो सकती है, लेकिन इसमें दोराय नहीं कि कांग्रेस ढहने की कगार आ खड़ी हुई है। चार राज्यों के विधानसभा चुनावों की तरह आम चुनावों में भी कांग्रेस की पराजय सुनिश्चित दिख रही है। ऐसे आसार उभरने के लिए जितने जिम्मेदार मनमोहन सिंह हैं उतने ही सोनिया और राहुल गांधी। मनमोहन सिंह की कथित साफ-सुथरी छवि और उनकी व्यक्तिगत ईमानदारी से एक भ्रष्ट चींटी तक का भी कुछ नहीं बिगड़ा। वह न केवल भ्रष्टाचार और भ्रष्ट तत्वों पर लगाम लगाने में नाकाम रहे, बल्कि अर्थव्यवस्था को संभालने में भी। ये काम करने के बजाय उन्होंने भ्रष्ट तत्वों को क्लीनचिट दी और वह भी इस हद तक कि उनका संयुक्त सचिव कोयला घोटाले की सीबीआइ रपट में हेरफेर करता हुआ पाया गया। अर्थशास्त्री होने के नाते यह भरोसा लंबे समय तक बना रहा कि मनमोहन सिंह अंतत: हालात संभालने में कामयाब हो जाएंगे, लेकिन हालात हर दिन हाथ से फिसलते रहे और प्रधानमंत्री सब कुछ ठीक होने का आश्वासन देते रहे। जब ये आश्वासन खोखले साबित होने लगे तो आलोचना के स्वर उभरे। आश्चर्यजनक रूप से आलोचकों को ङिाड़का जाने लगा। कहा गया कि वे अनावश्यक रुदन कर रहे हैं। आंखे तब भी नहीं खुलीं जब अंतरराष्ट्रीय मीडिया ने भी मनमोहन सिंह की निष्क्रियता का उल्लेख करना शुरू कर दिया। निष्क्रियता के इन आरोपों से न तो मनमोहन सिंह विचलित हुए और न ही सोनिया और राहुल। शायद उन्हें इस पर यकीन था कि रियायत की रेवड़ियां बांटकर वे जनता को खुश कर लेंगे। परिणाम यह हुआ कि सारा जोर खाद्य सुरक्षा कानून बनाने पर लगा दिया लगा। हद तो तब हो गई जब राहुल गांधी ने यह कहना शुरू कर दिया कि सड़कों से गरीबों का भला नहीं होता। उन पर तो अमीर लोग अपनी महंगी गाड़ियां दौड़ाते हैं। उन्हें शायद ही यह आभास हो कि वह एक तरह से उन नक्सलियों की भाषा बोल रहे थे जो इस कारण सड़कें नहीं बनने देते कि उनका इस्तेमाल पुलिस भी करने लगेगी।1 चार राज्यों में मात खाने के बाद कांग्रेस खुद में बदलाव लाने का भरोसा दिला रही है, लेकिन जेपीसी की जैसी रिपोर्ट संसद में पेश की गई उससे यह साफ हो जाता है कि बदलाव की बातें खोखली हैं। वैसे भी बदलाव का वक्त बीत चुका है। चिड़िया खेत चुग गई है। अब कांग्रेस का कुछ नहीं हो सकता। नि:संदेह कुछ हो सकता था अगर प्रधानमंत्री को बदल दिया जाता, कम से कम तब तो अवश्य ही जब यह सामने आया था कि कोयला घोटाले की जांच में हेराफेरी का काम प्रधानमंत्री कार्यालय के स्तर पर किया गया। ऐसा कुछ करने के बजाय उनकी निष्प्रभावी ईमानदारी के गुण गाए गए और अर्थव्यवस्था की चिंता करने वालों का मजाक उड़ाया गया। इसके दुष्परिणाम तो कांग्रेस को भोगने ही पड़ेंगे।
इस आलेख के लेखक राजीव सचान हैं
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