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परमवीर चक्र विजेता शहीद अब्दुल हमीद के साथी समाजसेवी अन्ना बाबूराव हजारे पाकिस्तान के खिलाफ युद्ध के मोर्चे पर पर मरते-मरते बच कर अब एक आमरण अनशन पर बैठे हैं। इस बार लड़ाई बाहरी दुश्मनों से न होकर भीतर के दुश्मनों से है। यह शत्रु है भ्रष्टाचार, देश की सड़ी-गली हुई व्यवस्था और उसके पोषक राजनीतिज्ञ अफसर और माफिया। प्रसिद्ध इतिहासकार और चिंतक रामचद्र गुहा ने कहा है कि विभिन्न अस्मिताओं वाले इस देश को एकता के सूत्र में बाधने में मध्यकालीन भक्ति आदोलन और आधुनिक काल में स्वाधीनता आंदोलन के बाद सिर्फ क्रिकेट ही है। कुछ हद तक बात सही भी है। आपने देखा होगा कि किस तरह विश्व कप मैच के दौरान हम सारे हिंदुस्तानी अपनी अन्य सभी पहचानों को भूलकर एक हो गए थे।
फिल्म कलाकार, उच्च-मध्य-निम्न वर्ग, युवा, छात्र और सभी जाति, धर्म, क्षेत्र, भाषा के लोग मानो इस राष्ट्रीय उत्सव का हिस्सा थे। ऐसा किसी समय गाधीजी के आदोलनों में ही होता था। गाधीवादी अन्ना हजारे का अनशन एक ऐसा ही राष्ट्रव्यापी आंदोलन बनता जा रहा है। सत्ता तत्र द्वारा इस अभियान को मुज्ञ्ी भर लोगों या चद बुद्धिजीवियों का क्रियाकलाप ठहराने की आरंभिक कोशिश इसीलिए सफल नहीं हो पाई। पहले से ही भ्रष्टाचार के अनेक मामलों में उलझी हुई सरकार को घुटने टेकने ही पड़े।
यहां यह बता देना जरूरी है, जैसा कि इस आंदोलन के एक प्रतिनिधि अरविंद केजरीवाल ने स्पष्ट किया कि यह आंदोलन किसी एक मत्री, राजनीतिक पार्टी या किसी सरकार के खिलाफ नहीं, यह तो उस राजनीति-अफसरशाही-माफिया गठजोड़ का विरोध है जो देश में पारदर्शिता, उत्तरदायित्व और अपराध के लिए दंड के विधान से अपने को ऊपर समझने लगी है। इस तरह के लोग सभी राजनीतिक पार्टियों से जुड़े हैं। हालांकि सभी पार्टियों में सदिच्छा वाले लोग भी हैं।
सोनिया गांधी, राहुल गांधी, लालकृष्ण आडवाणी, नीतीश कुमार या ऐसे अनेक राजनेता हैं जो ऐसे तत्वों के खिलाफ हैं, लेकिन तमाम सदिच्छाओं के बावजूद वे कोई व्यवस्थापक परिवर्तन कर पाने में सफल नहीं हो पाए हैं। और तो और, सोनिया गांधी की अध्यक्षता वाली प्रभावशाली राष्ट्रीय सलाहकार समिति के अनेक प्रस्तावों की भी सरकार के मत्रियों द्वारा अनदेखी की जाती रही है। बातचीत के लिए आगे आने पर मजबूर सरकार अभी भी मामले को उलझाना सा चाह रही है, लेकिन इससे आंदोलन की आग और फैलती ही जाएगी।
याद कीजिये आमिर खान की फिल्म ‘रंग दे बसती’ का अंतिम दृश्य जिसमें देश के सभी बड़े शहरों के शिक्षा-सस्थाओं के छात्रों, युवाओं, बुद्धिजीवियों और आम आदमी ने व्यवस्था के खिलाफ झडा उठा लिया था। हम मिस्न या अन्य अरब देशों जैसे अधिनायकवादी देश नहीं हैं और ससदीय लोकतत्र ने हमें अभिव्यक्ति और राजनीतिक अधिकारों के प्रयोग के अवसर प्रदान किए हैं और यह कि आंदोलन किसी अराजकता को फैलाने वाला नहीं है, लेकिन राजनीतिज्ञों को अब चेत जाना चाहिए कि स्थितिया हाथ से न निकल जाएं। लोगों की आस्था डगमगाने लगी है, मोह भग हो चला है, उनके धैर्य की सीमा खतम हो रही है।
यहां मीडिया की भूमिका पर थोड़ा विचार कर लिया जाए। इस मामले में प्रिंट मीडिया ने एक खासी अहम भूमिका अदा की है। हिंदी अख़बारों से लेकर, मराठी, बांग्ला तथा दक्षिण भारतीय भाषाओं के साथ-साथ अंग्रेजी पत्रों ने इस अभियान को आगे बढ़ाने में महती भूमिका अदा की है। इस संदर्भ में टेलीविजन चैनलों में से कुछ की भूमिका निश्चित रूप से थोड़ी सदिग्ध रही है। अंग्रेजी के एक प्रमुख समाचार चैनल ने तो एक तरह से इस पूरे आदोलन का बायकाट और ब्लैकआउट कर रखा है। अनेक हिंदी समाचार चैनलों के लिए भी अन्य अनेक गैर जरूरी मुद्दे ही ज्यादा अहम हैं। अगर कुछ चैनल यह सोचते हैं कि जनलोकपाल विधेयक और भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन को न दिखाकर वे इसे विफल कर देंगे तो वे मुगालते में हैं। उन्हें पता होना चाहिए कि जनता में बहुत ताकत होती है और अब तो यह जनता जाग गई है। उन्हें पता होना चाहिए कि 1857 की क्रांति और स्वाधीनता आंदोलन में जनता का सैलाब इन चैनलों के बिना भी उठ खड़ा हुआ था। फिर, आज तो इंटरनेट का और मोबाइल तकनीक का जमाना है। सोशल नेटवर्किंग साइट्स जैसे फेसबुक, ट्विटर आदि ने देश और दुनिया में फैले युवा शिक्षित वर्ग में इस आंदोलन को फैलाने में बड़ा योगदान दिया है। अन्ना हजारे अथवा जनलोकपाल विधेयक के नाम पर कई वेबसाइट भी आ गई हैं, जिनकी लोकप्रियता बढ़ती ही जा रही है। इंटरनेट और सोशल नेटवर्किग साइट्स आदि की भूमिका को हलके में नहीं लिया जा सकता।
पकिस्तान में राष्ट्रपति रहते हुए मुशर्रफ ने या हाल में मिस्न में होस्नी मुबारक ने जब प्रेस पर प्रतिबंध लगा दिया था, तब इंटरनेट ने ही जनता को सगठित करने में मदद की थी और उन्हें उखाड़ फेंका था। पूरी दुनिया में इस आंदोलन की चर्चा हो रही है। मेरे अनेक अमेरिकी और अन्य देशों के गैर भारतीय मित्रों के मेरे पास शुभकामना संदेश इस आंदोलन के लिए आए हैं। पूरी दुनिया में रहने वाले भारतीयों में खासा उबाल है। इंग्लैंड, आस्ट्रेलिया, यूरोप के विभिन्न देशों, अरब देशों से लेकर अफ्रीका में रहने वाले भारतीयों ने प्रदर्शन कर, पत्र लिखकर, पोस्टर- बैनर बनाकर अपना समर्थन व्यक्त किया है। अमेरिका में तो भारतीयों ने गांधीजी की दाडी यात्रा की तर्ज पर ही दाडी मार्च किया। अब लड़ाई बाहरी गोरे लोगों से नहीं, रंग से भूरे और ऊपर से अपनी तरह के अंदरूनी लोगों, लेकिन भीतरी सवेदना में इस देश के गरीब, दलित, आदिवासी, पिछड़े और आम आदमी से बिल्कुल दूर और अलग लोगों से है। जनलोकपाल विधेयक आंदोलन इसी दिशा में एक कदम है।
[निरंजन कुमार: लेखक दिल्ली विवि में एसोसिएट प्रोफेसर हैं]
साभार: जागरण नज़रिया
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